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________________ भेद और प्रत्यय-भेद के आधार पर ही स्थित हैं। अतः, यह तो कहा जा सकता है कि मागधी, पाली, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि सभी मूलतः प्राकृतें हैं; किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि मागधी आदि भी शौरसेनी हैं। इनकी अपनी-अपनी लाक्षणिक भिन्नताएँ हैं, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि मागधी भी शौरसेनी है या शौरसेनी का क्षेत्रीय संस्करण है। जिस प्रकार मागधी, पाली, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि प्राकृत के विभिन्न भेद हैं, उसी प्रकार शौरसेनी भी प्राकृत का ही एक भेद है। पुनः, यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर जैन आगमों की शौरसेनी परिशुद्ध शौरसेनी न होकर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्रभावित शौरसेनी है और इसीलिए पाश्चात्य विद्वानों ने उसे जैन शौरसेनी नाम दिया है। ___ मैं 'प्राकृतविद्या' के सम्पादक डॉ.सुदीपजी जैन से निवेदन करना चाहूँगा कि वे प्रो. टाँटियाजी और प्रो. भोलाशंकर व्यासजी के नाम पर शौरसेनी की सर्वोपरिता की थोथी मान्यता स्थापित करने हेतु प्राकृत प्रेमियों के बीच खाई न खोदें। वस्तुतः, यदि प्राकृत प्रेमी पाली, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री की सर्वोपरिता के नाम पर आपस में लड़ने लगेंगे, तो इससे प्राकृतविद्या की ही दुर्गति होगी। आज आवश्यकता है मिल-जुल कर समवेत रूप से प्राकृतविद्या के विकास की, न कि प्राकृत के इन क्षेत्रीय भेदों के नाम पर लड़कर अपनी शक्ति को समाप्त करने की। आशा है, प्राकृतविद्या के सम्पादक को इस सत्यता का बोध होगा और वे प्राकृत-प्रेमियों को आपस में न लड़ाकर प्राकृतों के विकास का कार्य करेंगे। सन्दर्भ 1. देखें - मेरा लेख- 'जैन आगमों' की मूल भाषा अर्द्धमागधी या शौरसेनी, सागर जैन, विद्याभारती, भाग-5, पृ. 10 से 36... 2. देखें - मेरा लेख, जिनवाणी, अंक-अप्रैल से सितम्बर 1998 3. देखें - मेरा लेख, जिनवाणी, अंक-जून 1998, पृ. 23 से 28 4. देखें - मेरा लेख, जिनवाणी, अंक-अप्रैल, मई, जून 1998
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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