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संस्कृतनिष्ठ बनाकर पूर्व-देशीय प्रभावों के साथ पाली - रूप दिया गया'.
बौद्ध ग्रन्थों की मूल भाषा क्या थी और उसे किस प्रकार पाली में रूपान्तरित किया गया, इसकी भी विस्तृत सप्रमाण समीक्षा हम अपने 'जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी' नामक लेख में कर चुके हैं। उस लेख में हमने स्पष्ट रूप से यह बताने का प्रयास किया है कि भगवान् बुद्ध का कार्यक्षेत्र मुख्यतः मगध और उसका समीपवर्ती प्रदेश रहा है। उन्होंने उनकी मातृभाषा मागधी में ही अपने उपदेश दिये थे और उनके उपदेशों का प्रथम संकलन भी मागधी में ही हुआ था। यह सत्य है कि कालान्तर में उसे संस्कृत के निकटवर्ती बनाकर पाली रूप दिया गया; किन्तु उसे किसी भी रूप में शौरसेनी प्राकृत नहीं कहा जा सकता है। उसे खींचतान कर शौरसेनी बताने का प्रयत्न एक दुराग्रह मात्र ही होगा ।
9. 'मैं शौरसेनी को ही मूल प्राकृत भाषा मानता हूँ'
हमें यहाँ प्रो. व्यासजी के द्वारा खड़ी की गई इस भ्रान्ति का निराकरण करना होगा कि सभी प्राकृतें शौरसेनीजन्य हैं। अपने व्याख्यान में वे एक स्थान पर कहते हैं कि 'शौरसेनी प्राकृत ही मूल प्राकृत थी और इसकी समवर्ती मागधी प्राकृत इसी का क्षेत्रीय संस्करण थी।' पुनः, वे कहते हैं कि 'परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत पूरी तरह से शौरसेनी का ही परिवर्तित रूप है, महाराष्ट्री प्राकृत का स्वतन्त्र अस्तित्व मैं नहीं मानता।' पुनः, वे कहते हैं कि 'अर्धमागधी प्राकृत, जो कि मात्र श्वेताम्बर जैन आगम ग्रन्थों में मिलती है, उसका आधार भी शौरसेनी प्राकृत ही है।' इसी क्रम में आगे वे कहते हैं कि 'बौद्ध ग्रन्थों की पाली भाषा भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत ही है।' उनके इन सब कथनों का निष्कर्ष तो यह है कि मागधी भी शौरसेनी, महाराष्ट्री भी शौरसेनी है, अर्धमागधी भी शौरसेनी है और पाली भी शौरसेनी है। यदि मागधी, पाली, अर्धमागधी और महाराष्ट्री सभी शौरसेनी हैं, तो फिर यह सब अलग-अलग भाषाएँ क्यों मानी जाती हैं और व्याकरण ग्रन्थों में इनके अलग-अलग लक्षण क्यों निर्धारित किये गये हैं? मागधी, शौरसेनी आदि सभी प्राकृतों के अपने विशिष्ट लक्षण हैं, जो उससे भिन्न अन्य प्राकृत में नहीं मिलते हैं, फिर वे सब एक कैसे कही जा सकती हैं। यदि मागधी, पाली, अर्धमागधी और महाराष्ट्री - सभी शौरसेनी हैं तो इन सभी के विशिष्ट लक्षणों को भी शौरसेनी के ही लक्षण मानने होंगे और ऐसी स्थिति में शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण नहीं रह जायेगा; किन्तु क्या शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणों के अभाव में उसे शौरसेनी नाम भी दिया जा सकेगा? वह तो परिशुद्ध शौरसेनी न होकर