SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यहाँ हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि गिरनार का क्षेत्र तो महाराष्ट्री प्राकृत का क्षेत्र है। गिरनार के अभिलेखों में जिन्हें वे शौरसेनी प्राकृत के शब्द-रूप मान रहे हैं वे वस्तुतः महाराष्ट्री प्राकृत के शब्दरूप हैं, अतः गिरनार के अभिलेखों की भाषा को शौरसेनी प्राकृत नहीं माना जा सकता है। पुनः, गिरनार की बात तो दूर रही, स्वयं शौरसेनी प्राकृत 'के क्षेत्र देहली - टोपरा के अशोक के अभिलेखों में कहीं भी शौरसेनी के विशिष्ट लक्षण नहीं पाये जाते हैं, अपितु वहाँ पर 'लाजा' जैसे मागधी रूप ही मिलते हैं, फिर वे किस आधार पर यह कहते हैं कि गिरनार के शिलालेखों में शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप मिलते हैं। 7. 'इसी क्रम में आगे प्रो. व्यासजी कहते हैं- इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा ‘कसायपाहुडसुत्त’,‘छक्खण्डागमसुत्त', 'कुन्दकुन्द साहित्य' एवं 'धवला', 'जयधवला' आदि में प्रयुक्त मिलती हैं'. प्रो. व्यासजी ने उपर्युक्त ग्रन्थों की भाषा को परिशुद्ध शौरसेनी कहा है। मैं प्रो. व्यासजी से अत्यन्त विनम्र शब्दों में यह पूछना चाहूँगा कि क्या इन ग्रन्थों के शब्द - रूपों का भाषाशास्त्रीय दृष्टि से उन्होंने कोई विश्लेषण किया है ? क्या इन ग्रन्थों के सन्दर्भ में उनका अध्ययन प्रो. उपाध्ये और प्रो. खडबडी जैसे दिगम्बर परम्परा के मूर्धन्य विद्वानों की अपेक्षा भी अधिक गहन है । आज तक किसी भी विद्वान् ने दिगम्बर आगमों की भाषा को परिशुद्ध शौरसेनी नहीं माना है। प्रो. ए. एन. उपाध्ये ने 'प्रवचनसार' की भूमिका में स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि उसकी (प्रवचनसार की) भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो. खडबडी छक्खण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं मानते हैं और उस पर अर्धमागधी का प्रभाव बताते हैं। यदि हम इन सभी ग्रन्थों के शब्द-रूपों का भाषाशास्त्रीय दृष्टि से विश्लेषण करें, तो स्पष्ट रूप से हमें एक दो नहीं, परन्तु सैकड़ों और हजारों शब्दरूप महाराष्ट्री और अर्धमागधी प्राकृत के मिलेंगे। मैं अपने पूर्व लेख 'जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी' में विस्तार से इस सम्बन्ध में भी चर्चा की है। प्रो. व्यासजी जिसे परिशुद्ध शौरसेनी कह रहे हैं, तो वह तो अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री की एक प्रकार की खिचड़ी है। शौरसेनी के प्रत्येक ग्रन्थ में इन विभिन्न प्राकृतों का अनुपात भी भिन्न-भिन्न पाया जाता है। 8. 'बौद्ध ग्रन्थों की पाली भाषा भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत ही थी, जिसे कृत्रिम रूप
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy