SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - 'शेषं प्राकृतवत्', इस सूत्र से क्या यही सिद्ध किया जाय कि शौरसेनी प्राकृत का आधार महाराष्ट्री प्राकृत है। ज्ञातव्य है कि हेमचन्द्र का 'प्राकृत' से तात्पर्य 'महाराष्ट्री प्राकृत' ही है, क्योंकि उन्होंने प्राकृत के नाम से महाराष्ट्री प्राकृत का ही व्याकरण लिखा है। 6. 'शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार के शिलालेख में मिलते हैं'. इस सम्बन्ध में भी विस्तृत विवेचन हम अपने स्वतंत्र लेख 'अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी' में कर रहे हैं। सभी विद्वानों ने एक स्वर से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या आर्षप्राकृत ही है, यद्यपि अभिलेखों पर तत्-तत् क्षेत्र की बोलियों का किञ्चित प्रभाव देखा जाता है। शौरसेनी प्राकृत के जो दो विशिष्ट लक्षण माने जाते हैं- मध्यवती 'त्' के स्थान पर 'द्' और दन्त्य ‘न् ́ के स्थान पर मूर्द्धन्य ‘ण्'- ये दोनों लक्षण अशोक के किसी अभिलेख में प्रायः नहीं देखे जाते हैं' अतः हमें अशोक के भिन्न भिन्न अभिलेखों की भाषा को तत् तत् प्रदेशों की क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी ही मानना होगा। इन क्षेत्रीय बोलियों के प्रभाव के आधार पर उसे अर्धमागधी के निकट तो कह सकते हैं; किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उनमें शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण नहीं पाया जाता है। एक दो अपवादों को छोड़कर अशोक के अभिलेखों में न तो कहीं मध्यवर्ती 'त्' का 'द्' पाया जाता है और न कहीं दन्त्य 'न्' के स्थान पर मूर्धन्य 'ण्' का प्रयोग मिलता है। उनमें सर्वत्र ही दन्त्य 'न्' का प्रयोग देखा जाता है। जहाँ तक प्रो. व्यासजी के इस कथन का प्रश्न है कि 'शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार के शिलालेख में मिलते हैं' इस विषय में हम उनसे यही जानना चाहेंगे कि क्या गिरनार के किसी भी शिलालेख में मध्यवर्ती 'त्' के स्थान पर 'द्' का प्रयोग हुआ है? जहाँ तक मूर्द्धन्य 'ण्' का प्रश्न है, वह शौरसेनी और महाराष्ट्री - दोनों में समान रूप से पाया जाता है, फिर भी उसका अशोक के अभिलेखों में कहीं प्रयोग नहीं हुआ है। हम उनसे साग्रह निवेदन करना चाहेंगे कि वे गिरनार के अभिलेखों में उन शब्दरूपों को छोड़कर, जो शौरसेनी और महाराष्ट्री - दोनों में ही पाये जाते हैं, शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणयुक्त शब्द-रूप दिखायें, जो अर्धमागधी और महाराष्ट्री के शब्द - रूपों से भिन्न हों और मात्र शौरसेनी की विशिष्टता को लिये हों। 89
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy