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________________ संस्कारित रूप हैं। प्रत्येक क्षेत्रीय बोली की उच्चारणगत अपनी विशेषता होती है, जो उस क्षेत्र की भाषा की भी विशेषता बन जाती है। ये उच्चारणगत क्षेत्रीय विशेषताएँ प्रत्येक क्षेत्र की निजी होती हैं, वे किसी भी दूसरे क्षेत्र के प्रभाव से उत्पन्न नहीं होती हैं। अतः, प्रत्येक प्राकृत अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ अपनी क्षेत्रीय बोली से जन्म लेती हैं, किसी दूसरी प्राकृत से नहीं, जैसे - मारवाड़ी, मेवाड़ी, मालवी, बुन्देली, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि बोलियों को किसी एक बोली विशेष से या हिन्दी से उत्पन्न मानना अवैज्ञानिक है एवं एक भ्रान्ति है और कोई भी भाषाशास्त्री इस तथ्य को स्वीकार नहीं करेगा; वैसे ही किसी एक प्राकृत विशेष को भी दूसरी प्राकृत से या संस्कृत से उत्पन्न होना मानना भी एक भ्रान्ति है। 2 4. 'पहले दो प्राकृतें थीं शौरसेनी और मागधी; महाराष्ट्री प्राकृत पूरी तरह से शौरसेनी प्राकृत का ही परवर्ती रूप है। महाराष्ट्री प्राकृत का मैं कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं मानता'. प्रथम तो यह कहना कि महाराष्ट्री प्राकृत, शौरसेनी का ही परवर्ती रूप है, उचित नहीं है, क्योंकि शौरसेनी और महाराष्ट्री आदि सभी प्राकृतों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं, जहाँ शौरसेनी प्राकृत में मध्यवर्ती 'त्' का 'द्' में परिवर्तन होता है, वहीं महाराष्ट्री प्राकृत में लुप्त व्यञ्जनों की 'य्' श्रुति होती है । पुनः शौरसेनी की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत कोमल और कान्त है, वहीं शौरसेनी कठोर पदावलियों से युक्त है, यथा- 'वद्धमान' का ‘वड्ढमाण’। पुनः, जब दोनों की अपनी-अपनी लक्षणगत भिन्नता है, तो फिर यह कहना कि मैं महाराष्ट्री प्राकृत का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं मानता हूँ, उचित नहीं है। आज यदि प्राकृतों में किसी प्राकृत का सर्वाधिक साहित्य है, तो वह महाराष्ट्री प्राकृत का ही है। महाराष्ट्री प्राकृत के साहित्य की तुलना में शेष सभी प्राकृतों का साहित्य तो दशमांश भी नहीं है। जिसमें 90 प्रतिशत साहित्य हो उस प्राकृत का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानना केवल पक्षाग्रह का ही सूचक है । पुनः, यदि महाराष्ट्री और शौरसेनी में अन्तर नहीं है, तो फिर शौरसेनी नाम का आग्रह ही क्यों ? आज एक भी ऐसा साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि शौरसेनी प्राचीन है और महाराष्ट्री परवर्ती है। अश्वघोष या भास के नाटकों से अर्थात् ईस्वी सन् की दूसरी शती से पूर्व का एक भी साहित्यिक या अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर शौरसेनी की अन्य प्राकृतों से प्राचीनता सिद्ध हो सके, जबकि सातवाहन हाल की महाराष्ट्री प्राकृत 87
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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