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समीकरण उलट जाएगा और उन्हें यह मानना होगा कि मागधी मूल प्राकृत है और शौरसेनी प्राकृत, मागधी प्राकृत का एक क्षेत्रीय संस्करण है। 2. 'शौरसेनी प्राकृत मध्य-देश में बोली जाती थी तथा सम्पूर्ण बृहत्तर भारत में
इसके माध्यम से साहित्य सृजन होता रहा'.
यह तो सत्य है कि शौरसेनी प्राकृत मध्यदेश में बोली जाती थी; किन्तु प्रो. व्यास का यह कथन कि सम्पूर्ण भारत में इसके माध्यम से साहित्य सृजन होता रहा है, साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर मात्र एक अतिशयोक्ति से अधिक कुछ नहीं है, क्योंकि नाटकों के शौरसेनी अंशों को छोड़कर हमें शौरसेनी प्राकृत में कोई भी धर्म या सम्प्रदाय-निरपेक्ष सम्पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। शौरसेनी प्राकृत में जो भी ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, वे मात्र जैनों के दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदायों के हैं। यह ठीक है कि इन सम्प्रदायों के आचार्यों ने चाहे वे उत्तर भारत के हों या दक्षिण भारत के, शौरसेनी प्राकृत में ही अपने ग्रन्थ लिखे थे; किन्तु हमें यह भी स्मरण में रखना चाहिए कि उसी काल में श्वेताम्बर जैन आचार्य अर्धमागधी या अर्धमागधी प्रभावित महाराष्ट्री प्राकृत में अपनी धार्मिक एवं साहित्यिक कृतियों की रचना कर रहे थे। मात्र इतना ही नहीं, उसी काल में धर्म एवं सम्प्रदाय निरपेक्ष साहित्यिक कृतियों की रचना भी महाराष्ट्री प्राकृत में हो रही थीं। जहाँ शौरसेनी प्राकृत में सम्प्रदाय निरपेक्ष साहित्यिक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, वहीं महाराष्ट्री प्राकृत में ऐसे अनेकों ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इससे यही फलित होता है कि धर्म-निपरेक्ष साहित्यिक कृतियों की रचना की दृष्टि से महाराष्ट्री प्राकृत ही अधिक प्रचलन में थीं। आज शौरसेनी प्राकृत की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत के अधिक व्यापक होने के प्रमाण हैं। अतः, यह मानना होगा कि शौरसेनी की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत अधिक व्यापक रही है और उसके माध्यम से धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष-दोनों ही प्रकार के साहित्य का सृजन भारत में होता रहा है। 3. 'शौरसेनी प्राकृत ही सभी प्राकृतों एवं अन्य भाषाओं की जननी है'. ... इस प्रश्न के सम्बन्ध में भी हम अपने पूर्व लेखों में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं। सत्य तो यह है कि सभी प्राकृतें अपनी-अपनी क्षेत्रीय बोलियों से विकसित हुई है और इसलिए यह कहना किसी भी स्थिति में युक्तिसंगत नहीं है कि शौरसेनी प्राकृत ही सभी प्राकृतों या अन्य भाषाओं की जननी है। किसी भी एक प्राकृत को दूसरी प्राकृत से उत्पन्न हुआ मानना एक भ्रान्ति है। सभी साहित्यिक प्राकृतें अपनी-अपनी क्षेत्रीय बोलियों के