________________
कर्म - सिद्धान्त के इतिहास को समझने के लिए अर्धमागधी आगमों एवं श्वेताम्बर कर्म साहित्य का अध्ययन भी उतना ही जरूरी है, जितना 'षट्खण्डागम' का । मैं स्वयं भी जैन कर्म-सिद्धान्त के विकसित स्वरूप के गम्भीर विवेचन की दृष्टि से 'षट्खण्डागम' के मूल्य और महत्त्व को स्वीकार करता हूँ; किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि अर्धमागधी आगमों एवं श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा प्रणीत प्राचीन कर्म - साहित्य को नकार दिया जावे।
10. 'हरिभद्रसूरि का सारा 'योगशतक' धवला से है। 'धवला' समस्त जैन दर्शन और ज्ञान का अगाध भण्डार है। 'धवला' में क्या नहीं है ?'
हरिभद्रसूरि का सारा 'योगशतक' धवला से है - इस कथन का अर्थ यह है कि हरिभद्र ने 'योगशतक' को 'धवला' से लिया है। यह विश्वास नहीं होता कि टाँटियाजी जैसे प्रौढ़ विद्वान् को जैन इतिहास का इतना भी बोध नहीं है कि 'धवला' और हरिभद्र के ‘योगशतक' में कौन प्राचीन है ? अनेक प्रमाणों से यह सुस्थापित हो चुका है कि 'धवला' की रचना नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुई, जबकि हरिभद्र आठवीं शताब्दी के विद्वान हैं। सत्य तो यह है कि हरिभद्रसूरि के 'योगशतक' से धवलाकार ने लिया है, अतः टाँटियाजी जैसे विद्वान् के नाम से ऐतिहासिक सत्य को भी उलट देना कहाँ तक उचित है ? धवलाकार ही हरिभद्रसूरि के ऋणी हैं, हरिभद्रसूरि धवलाकार के ऋणी नहीं हैं।
यह सत्य है कि 'धवला' में अनेक बातें संकलित कर ली गई हैं; किन्तु अनेक तथ्यों का संकलन करने मात्र से कोई ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण नहीं बन जाता है । पुनः, यह कहना कि 'धवला' में क्या नहीं है, एक अतिशयोक्तिपूर्ण कथन के अलावा कुछ नहीं है। जैन विद्या के अनेक पक्ष ऐसे हैं, जिनकी 'धवला' में कोई चर्चा नहीं है। 'धवला' मूलतः 'षट्खण्डागम' की टीका है, जो जैन कर्म-सिद्धान्त का ग्रन्थ है, अतः उसका भी मूल प्रतिपाद्य तो जैन कर्म - सिद्धान्त ही है, अन्य विषय तो प्रसंगवश समाहित कर लिये गये हैं। 'धवला' में क्या नहीं है ? इस कथन का यह आशय लगा लेना कि 'धवला' में सब कुछ है, एक भ्रान्ति होगी । ' प्रवचनसारोद्धार' आदि अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों का विषय वैविध्य 'धवला' से भी अधिक है।
11. 'आचार्य वीरसेन बहुश्रुत विद्वान् थे। उन्होंने समस्त दिगम्बर - श्वेताम्बर साहित्य
80