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बाद में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध साहित्य का मागधीकरण किया और शौरसेनी निबद्ध बौद्ध साहित्य के ग्रन्थों को अग्निसात् कर दिया गया, जबकि प्राकृतविद्या, जुलाईसितम्बर 1996 में लिखा है कि ' बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे उनको जला दिया गया
और पाली में लिखा गया।' इस प्रकार सुदीपजी टाँटियाजी के नाम से एक जगह लिखते हैं कि बौद्ध ग्रन्थों का मागधीकरण किया गया जबकि दूसरी जगह लिखते हैं कि पाली में लिखा गया- इन दोनों में सच क्या है? टाँटियाजी ने तो कोई एक बात कही होगी। मागधी
और पाली दोनों अलग-अलग भाषाएँ हैं। सत्य तो यह है कि बौद्ध साहित्य मागधी से पाली में लिखा गया था न कि शौरसेनी से पाली में। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि सुदीपजी ने टाँटियाजी के शब्दों में तोड़-मरोड़ की है। 9. 'कर्मसिद्धान्त के बहुत से रहस्यों को जब हम (श्वेताम्बर) नहीं समझ पाते हैं,
तब हम 'षट्खण्डागम' के सहारे से ही उनको समझते हैं। 'षट्खण्डागम' में कर्म-सिद्धान्त के समस्त कोणों को बड़े वैज्ञानिक ढंग से रखा गया है.'
यह सत्य है कि 'षट्खण्डागम' में जैन कर्मसिद्धान्त का गम्भीर एवं विशद विवेचन है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि कर्म-सिद्धान्त के रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए श्वेताम्बरों को भी कभी-कभी उसका सहारा लेना होता है; किन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि 'षट्खण्डागम' मूलतः दिगम्बर सम्प्रदाय का ग्रन्थ न होकर उस विलुप्त यापनीय सम्प्रदाय का ग्रन्थ है, जो अर्धमागधी आगमों और उसमें प्रतिपादित स्त्री मुक्ति के सिद्धान्त को मान्य रखता था, जिसका प्रमाण उसके प्रथम खण्ड का 93वाँ सूत्र है, जिसमें से 'संजद' शब्द के प्रयोग को हटाने का दिगम्बर विद्वानां ने उपक्रम भी किया था
और प्रथम संस्करण को मुद्रित करते समय उसे हटा भी दिया था, यद्यपि बाद में उसे रखना पड़ा, क्योंकि उसे हटाने पर उस सूत्र की धवला टीका गड़बड़ा जाती थी। इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपनी पुस्तक 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' के तृतीय अध्याय में की है और प्रस्तुत प्रसंग में केवल इतना बता देना पर्याप्त है कि यह 'षट्खण्डागम' मूलतः ‘प्रज्ञापना' आदि अर्धमागधी आगम साहित्य के आधार पर निर्मित हआ है और इसके प्रथम खण्ड की 'जीवसमास' की विषयवस्तु से बहुत कुछ समरूपता है और दोनों एक ही काल की कृतियाँ हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन 'जीवसमास' की भूमिका में किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि 'षट्खण्डागम' में प्रतिपादित जैन