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ओड्मागधी कहा गया है, जो सम्पूर्ण पूर्वीय भारत में प्रचलित थी। वह एक मिश्रित नाट्यशैली मात्र है, किन्तु डॉ. सुदीपजी उसे भाषा मान बैठे हैं। वे प्राकृत-विद्या, अप्रैलजून 1998, पृ.13-14 पर लिखते हैं- 'ओड्मागधी प्राकृत भाषा का ईसा पूर्व के वृहत्तर भारतवर्ष के पूर्वी क्षेत्र में पूर्णतः वर्चस्व था, यह न केवल इन क्षेत्रों में बोली जाती थी, अपितु साहित्य लेखन आदि भी इसी में होता था, इसीलिए सम्राट खारवेल का कलिंग अभिलेखन (हाथी- गुफा अभिलेख) भी इसी ओड्मागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध है। '
प्रथमतः तो ओड्मागधी मात्र नाट्यशैली थी, भाषा नहीं, क्योंकि आज तक एक भी विद्वान् ने इसका भाषा के रूप में उल्लेख नहीं किया है। पुनः, जैसा कि भाई सुदीपजी लिखते हैं कि उसमें साहित्य लेखन होता था, तो वे ऐसे एक भी ग्रन्थ का नामोल्लेख भी करें, जो इस ओड्मागधी में लिखा गया हो। पुनः, यदि बकौल उनके इसे एक भाषा मान भी लें, तो यह उड़ीसा और मगध क्षेत्र की बोलियों के मिश्रित रूप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, क्योंकि सभी विद्वानों ने एक मत से यह माना है कि अर्धमागधी मागधी और उसके समीपवर्ती प्रादेशिक बोलियों के शब्दरूपों से बनी एक मिश्रित भाषा है। उड़ीसा मगध का समीपवर्ती प्रदेश है, अतः उसके शब्द स्वाभाविक रूप से उसमें सम्मिलित हैं, अतः ओड्मागधी अर्धमागधी या उसकी एक विशेष विधा के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। वस्तुतः, डॉ. सुदीपजी को अर्धमागधी के नाम से ही घृणा है, उन्हें इस नाम को स्वीकार करने पर अपने साम्प्रदायिक अभिनिवेश पर चोट पहुँचती नजर आती है। उनका इसके पीछे अर्धमागधी आगमों और उनके मानने वालों के प्रति वैमनस्य प्रदर्शित करने के अलावा क्या उद्देश्य है, मैं नहीं जानता ?
उन्होंने हाथीगुफा अभिलेख को प्रादर्श मानकर उससे ओड्मागधी के कुछ लक्षण भी निर्धारित किये हैं। आएं, देखें उनमें कितनी सत्यता है और वे अर्धमागधी के लक्षणों से किस अर्थ में भिन्न हैं? वे लिखते हैं कि 'इस अभिलेख में सर्वत्र पद के प्रारम्भ में 'ण्' वर्ण का प्रयाग हुआ है, तथा अन्त में 'न्' वर्ण आया है, जबकि अर्धमागधी में पद के प्रारम्भ में 'न्' वर्ण आता है और अन्त में 'ण्' वर्ण आता है।' वस्तुतः, यह प्राचीन शौरसेनी, जो कि दिगम्बर जैनागमों की मूलभाषा से प्रभावित मागधी का विशिष्ट रूप है, इसमें दन्त्य ‘स्’कार की प्रकृति, ‘क्' वर्ण का 'ग्' वर्ण आदेश, 'थ्' के स्थान पर ' ध्' का प्रयोग एवं अकारान्त पु. प्रथमा एकवचनान्त रूपों में ओकारान्त की प्रवृत्ति विशुद्ध शौरसेनी का ही
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