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________________ लक्षण) आचारांग में मात्र 0.5 प्रतिशत है। खारवेल के अभिलेख में उसका प्रायः अभाव है। मध्यवर्ती 'त' का 'द', जो कि शौरसेनी प्राकृत का मुख्य लक्षण है-उसका आचारांग और खारवेल के अभिलेख में प्रायः अभाव है, जबकि कुन्दकुन्द के प्रवचनसार जैसे ग्रन्थ में वह 95 प्रतिशत है। मध्यवर्ती 'ध' का 'ध' रूप आचारांग और खारवेल के अभिलेख में प्रायः शत-प्रतिशत है, जबकि प्रवचनसार में मात्र 50 प्रतिशत है। ये और इस प्रकार के भाषिक परिवर्तनों से सिद्ध होता है कि अर्धमागधी के प्राचीन शब्दरूप प्रायः अशोक एवं खारवेल के अभिलेखों में मिल जाते हैं, जबकि शौरसेनी प्राकृत और महाराष्ट्री प्राकृत के शब्दरूपों का उनमें अभाव है। अतः यह ई.पू. की अभिलेखीय प्राकृत और अर्धमागधी में अधिक समरूपता है। अर्धमागधी का विकास मागधी और मगध की समीपवर्ती क्षेत्रीय बोलियों के शब्दरूप के मिश्रण से हुआ है। शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृतों का विकास भी उन क्षेत्रों की क्षेत्रीय बोलियों से हुआ होगा, इसमें तो सन्देह नहीं है, किन्तु इन्हें साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता लगभग ईसा की 3री या 4थी शती में मिल पायी है, क्योंकि ई.पू.प्रथम शती से ईसा की 2री शती तक के मथुरा से उपलब्ध अभिलेखों में शौरसेनी या महाराष्ट्री के लक्षणों का प्रायः अभाव है, जबकि उन पर संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। यदि शौरसेनी साहित्यिक प्राकृत के रूप में उस काल में प्रतिष्ठित होती, तो उसके मुख्य लक्षण मध्यवर्ती 'त' का 'द' तथा इसी प्रकार शौरसेनी और महाराष्ट्री- दोनों का विशेष लक्षण 'न' का सर्वत्र 'ण' कहीं तो मिलने थे। अशोक, खारवेल और मथुरा के अभिलेखों में 'न' ही मिलता है, 'ण' नहीं। इससे प्रमाणित होता है कि जैन शौरसेनी प्राकृत अभिलेखीय प्राकृत से परवर्ती मागधी (पाली) और अर्धमागधी के पश्चात् ही अस्तित्व में आई है। ___मेरी दृष्टि में क्षेत्रीय बोलियों की दृष्टि से प्राकृतें संस्कृत भाषा से अति प्राचीन हैं, किन्तु साहित्यिक भाषा के रूप में वे उससे परवर्ती हैं। संस्कृत भाषा, चाहे वह आर्षग्रन्थों की भाषा रही हो या परवर्ती साहित्यिक ग्रन्थों की भाषा रही हो, वे व्याकरण के नियमों से बद्ध हैं और उनमें किसी सीमा तक एकरूपता है, जबकि प्राकृतें क्षेत्रीय बोलियों से उद्भूत होने के कारण बहुविध हैं। चाहे संस्कृत व्याकरण को आदर्श या मॉडल मानकर उनके व्याकरणों की संरचना हुई हो, फिर भी बहुविधता को बनाये रखा गया है। अतः, विभिन्न प्राकृतों के शब्दरूपों में आंशिक समरूपता और आंशिक भिन्नता मिलती है। यहां यह ज्ञातव्य है कि साहित्यिक प्राकृत ग्रन्थों की रचना पहले हुई और उनके शब्द-रूपों को
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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