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________________ भायूरोपीय भाषाओं में विभिन्न प्राकृतें और लेटिन ग्रीक आदि भाषाएं समाहित हैं। भाषा वैज्ञानिकों ने मध्यकालीन इन भाषाओं को पुनः तीन भागों में वर्गीकृत किया है1. मध्यकालीन प्राचीन भाषाएं, 2. मध्य मध्यकालीन भाषाएं और 3. परवर्ती मध्यकालीन भाषाएं। इनमें प्राचीन मध्यकालीन भाषाओं में अशोक एवं खारवेल के अभिलेख की भाषाएं, पाली (परिष्कृत मागधी), अर्धमागधी, गांधारी (प्राचीन वैशाली) एवं मथुरा के प्राचीन अभिलेखों की भाषाएँ । जहाँ तक मध्यकालीन भाषाओं का प्रश्न है, उस वर्ग के अन्तर्गत विभिन्न नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतें यथा मागधी, शौरसेनी, प्राचीन महाराष्ट्री तथा परवर्ती साहित्यिक महाराष्ट्री तथा पैशाची आती हैं। ज्ञातव्य है कि नाटकों की शौरसेनी और महाराष्ट्री की अपेक्षा जैन ग्रन्थों की शौरसेनी एवं महाराष्ट्री परस्पर एकदूसरे से और किसी सीमा तक परवर्ती अर्द्धमागधी से प्रभावित हैं। जब मैं यहाँ परवर्ती अर्धमागधी की बात करता हूँ, तो मेरा तात्पर्य क्वचित् शौरसेनी एवं अधिकांशतः महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित मागधी से है, जो कुछ प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों, यथा - आचारांग, इसिभासियाई आदि के प्राचीन पाठों को छोड़कर वर्त्तमान में उपलब्ध अधिकांश अर्धमागधी आगमों एवं उनकी प्राकृत व्याख्याओं तथा पउमचरियं आदि में उपलब्ध हैं। यद्यपि अर्धमागधी के कुछ प्राचीन पाठ 11वीं - 12वीं शती तक की हस्तप्रतों तथा भाष्य या चूर्णि के मूल पाठों में सुरक्षित है। संस्कृत मिश्रित प्राकृत में रचित चूर्णियों ( 7वीं शती) की भाषा में भी कुछ प्राचीन अर्धमागधी का रूप सुरक्षित है। प्रो. के. आर. चन्द्रा ने प्राचीन हस्तप्रतों, चूर्णिपाठों तथा अशोक और खारवेल के अभिलेखों के शब्दरूपों के आधार पर आचारांग में प्रथम अध्ययन का प्राचीन अर्धमागधी स्वरूप स्पष्ट किया है। जहां तक मध्यकालीन परवर्ती भारतीय आर्यभाषाओं का प्रश्न है, वे विभिन्न अपभ्रंशों के रूप में उपलब्ध हैं। इसके पश्चात् आधुनिक युग की भाषाएं आती हैं, यथा - हिन्दी, गुजराती, मराठी, पंजाबी, बंगला, मैथिल आदि। इनका जन्म विभिन्न प्राकृतों से विकसित विभिन्न अपभ्रंशों से ही हुआ है। अब जहां तक प्राचीन अर्धमागधी के स्वरूप का प्रश्न है, उसके अधिकांश शब्दरूप अशोक एवं खारवेल के शिलालेखों तथा पाली त्रिपिटक के समकालिक हैं। डॉ. शोभना शाह ने आचारांगसूत्र की अर्धमागधी के शब्दरूपों की खारवेल के अभिलेख से तुलना की है। उन्होंने बताया है कि मध्यवर्ती 'त' का अस्तित्व आचारांग में 99.5 प्रतिशत है और खारवेल के अभिलेख में 100 प्रतिशत है। मध्यवर्ती 'त' का 'य' (महाराष्ट्री प्राकृत का
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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