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बलशाली होगी और विरोधी में मानवीय गुणों का जितना अधिक प्रकटन होगा, अहिंसक विरोध की सफलता भी उतनी ही अधिक होगी।
जहां तक उद्योगजा और आरम्भजा हिंसा का प्रश्न है, एक गृहस्थ उपासक उससे बच नहीं सकता, क्योंकि जब तक शरीर और सम्पत्ति का मोह है, आजीविका का अर्जन
और शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति दोनों ही आवश्यक हैं। इस स्तर पर हिंसा को त्रस प्राणियों की हिंसा और स्थावर प्राणियों की हिंसा-इन दो भागों में बांटा जा सकता है और व्यक्ति अपने को त्रस प्राणियों की हिंसा से बचा सकता है। जैन विचारणा में गृहस्थ उपासक के लिए उद्योग, व्यवसाय एवं जीवन रक्षण के लिए भी त्रस प्राणियों की हिंसा का निषेध किया गया है।
लेकिन, जब व्यक्ति शरीर और सम्पत्ति के मोह से ऊपर उठ जाता है, तो वह पूर्ण अहिंसा की दिशा में और आगे बढ़ जाता है। जहां तक श्रमण साधक या संन्यासी का प्रश्न है, वह निष्परिग्रही होता है, उसे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं होता, अतः वह सर्वतोभावेन हिंसा के विरत होने का व्रत लेता है। शरीर धारण मात्र के लिए कुछ अपवादों को छोड़कर वह संकल्पपूर्वक और विवशतावश- दोनों ही परिस्थितियों में त्रस और स्थावर की हिंसा से पूर्ण विरत हो जाता है। मुनि नथमलजी के शब्दों में-'कोई भी व्यक्ति एक ही डग में चोटी तक नहीं पहुँच सकता। वह धीमे-धीमे आगे बढ़ता है। भगवान् महावीर ने अहिंसा की पहुंच के कुछ स्तर निर्धारित किए हैं। वे वस्तुस्थिति पर आधारित हैं। उन्होंने हिंसा को तीन भागों में विभक्त किया- 1. संकल्पजा, 2. विरोधजा, 3. आरम्भजा। संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है। वह सबके लिए सर्वथा परिहार्य है। विरोधजा-हिंसा प्रत्याक्रमण हिंसा है। उसे छोड़ने में वह असमर्थ होता है, जो भौतिक संस्थानों पर अपना अस्तित्व रखना चाहता है। आरम्भजा हिंसा आजीविकात्मक हिंसा है। उसे छोड़ने में वे सब असमर्थ होते हैं, जो भौतिक साधनों के अर्जन-संरक्षण द्वारा अपना जीवन चलाना चाहते हैं (तट दो, प्रवाह एक, पृष्ठ 40)।'
प्रथम स्तर पर हम आसक्ति, तृष्णा आदि के वशीभूत होकर की जाने वाली अनावश्यक आक्रमणात्मक हिंसा से बचें, फिर दूसरे स्तर पर जीवनयापन एवं आजीविकोपार्जन के निमित्त होने वाली त्रस प्राणियों की हिंसा से विरत होवें, तीसरे स्तर पर विरोध के अहिंसक तरीके को अपनाकर प्रत्याक्रमणात्मक हिंसा से विरत होवें। इस प्रकार, जीवन के लिए आवश्यक बनी हुई हिंसा से क्रमशः उठते हुए चौथे स्तर पर शरीर