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________________ और परिग्रह की आसक्ति का परित्याग कर सर्वतोभावेन पूर्ण अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ें। इस प्रकार, पूर्ण अहिंसा का आदर्श पूर्णतया अव्यवहारिक नहीं रहता । व्यक्ति जैसेजैसे सम्पत्ति और शरीर के मोह से ऊपर उठता जाता है, अहिंसा का आदर्श उसके लिए व्यवहार्य बनता जाता है। पूर्ण अनासक्त जीवन में पूर्ण अहिंसा व्यवहार्य बन जाती है, यद्यपि यह ध्यान रखना होगा कि शरीरधारी रहते हुए पूर्ण अहिंसा एक आदर्श ही रहेगी, वह यथार्थ नहीं बन पाएगी। जब शरीर के संरक्षण का मोह समाप्त होगा, तभी वह आदर्श, यथार्थ की भूमि पर अवतरित होगा, फिर भी एक बात ध्यान में रखनी होगी, वह यह कि जब तक शरीर है और शरीर के संरक्षण की वृत्ति है, चाहे वह साधना के लिए ही क्यों न हो, यह कथमपि संभव नहीं है कि व्यक्ति पूर्ण अहिंसा के आदर्श को पूर्णरूपेण साकार कर सके। शरीर के लिए आहार आवश्यक है, कोई भी आहार बिना हिंसा के संभव नहीं होगा। चाहे हमारा मुनिवर्ग यह कहता भी हो कि हम औद्देशिक आहार नहीं लेते, किन्तु क्या उनकी विहार यात्रा में साथ चलने वाला पूरा लवाजिमा, सेवा में रहने के नाम पर लगने वाले चौके औद्देशिक नहीं ? जब समाज में रात्रिभोजन सामान्य हो गया हो, क्या संध्याकालीन गोचरी में अनौद्देशिक आहार मिल पाना संभव नहीं है? क्या कश्मीर से कन्याकुमारी तक, मुम्बई से कलकत्ता तक की सारी यात्राएं औद्देशिक- आहार के अभाव में निर्विघ्न संभव हो सकती हैं? क्या आर्हत् प्रवचन की प्रभावना के लिए मंदिरों का निर्माण, पूजा और प्रतिष्ठा के समारोह, संस्थाओं का संचालन, मुनिजनों के स्वागत और विदाई समारोह तथा अधिवेशन, षट्निकाय की नवकोटियुक्त अहिंसा के परिपालन के साथ कोई संगति रख सकते हैं? हमें अपनी अंतरात्मा से यह सब पूछना होगा। हो सकता है कि कुछ विरल संत और साधक हों, जो इन कसौटियों पर खरे उतरते हों। मैं उनकी बात नहीं कहता, वे शतशः वंदनीय हैं, किन्तु सामान्य स्थिति क्या है ? फिर भिक्षाचर्या, पाद विहार, शरीर संचालन, धासोच्छ्वास- किसमें हिंसा नहीं है? महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया है- 'जल में जीव है, पृथ्वी पर और वृक्षों के फलों में अनेक जीव हैं। ऐसा कोई मनुष्य नहीं, जो इन्हें नहीं मारता हो ।' (15 / 25-26 ) पुनः, कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं, जो इन्द्रियों से नहीं, अनुमान से जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के झपकने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं, अतः जीव हिंसा से बचा नहीं जा सकता। एक ओर षट्जीवनिकाय की अवधारणा और दूसरी ओर पूर्ण नवकोटियुक्त पूर्ण अहिंसा का आदर्श। जीवित रहकर इन दोनों में संगति बिठा पाना अशक्य है। अतः, जैन आचार्यों को भी यह ||||
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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