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संकल्पजा हिंसा हमारे वैचारिक या मानसिक जगत् पर निर्भर है। मानसिक संकल्प के कर्ता के रूप में व्यक्ति में स्वतंत्रता की संभावनाएँ सर्वाधिक विकसित हैं। अपने मानसिक जगत् के क्षेत्र में व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र है। इस स्तर पर पूरी तरह अहिंसा का पालन अधिक सहज एवं संभव है। बाह्य स्थितियाँ इस स्तर पर हमें प्रभावित कर सकती हैं, लेकिन शासित नहीं कर सकतीं। व्यक्ति स्वयं अपने विचारों का स्वामी होता है, अतः इस स्तर पर अहिंसक होना सभी के लिए आवश्यक है। व्यावहारिक दृष्टि से संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है। यह न तो जीवन के रक्षण के लिए है और न जीवन निर्वाह के लिए है, अतः इसे सभी के द्वारा छोड़ा जा सकता है।
हिंसा का दूसरा रूप विरोधजा है। यह प्रत्याक्रमण या सुरक्षात्मक है। 'स्व' एवं 'पर' के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए इसे करना पड़ता है। इसमें बाह्य परिस्थितिगत तत्त्वों का प्रभाव मुख्य होता है। बाह्य स्थितियाँ व्यक्ति को बाध्य करती हैं कि वह अपने एवं अपने साथियों के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए प्रत्याक्रमण के रूप में हिंसा करे। जो भी व्यक्ति शरीर एवं अन्य भौतिक संस्थानों पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं, अथवा जो भी अपने और अपने साथियों के अधिकारों में आस्था रखते हैं, इस विरोधजा हिंसा को छोड़ने में असमर्थ हैं। गृहस्थ उपासक हिंसा के इस रूप को पूरी तरह छोड़ पाने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि वे शरीर एवं अन्य भौतिक वस्तुओं पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं। इसी प्रकार शासक वर्ग, राजनीतिक नेता, जो मानवीय अधिकारों, राष्ट्रीय हितों में आस्था रखते हैं, इसे पूरी तरह छोड़ पाने में असमर्थ हैं।
आधुनिक युग में गांधी एक ऐसे विचारक अवश्य हैं, जिन्होंने विरोध का अहिंसक तरीका प्रस्तुत किया और उसमें सफलता भी प्राप्त की, किन्तु अहिंसक के रूप में विरोध कर पाना, उसमें सफलता प्राप्त कर लेना, हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। अहिंसक रीति के अधिकारों का संरक्षण करने में वही व्यक्ति सफल होता है, जिसे शरीर के प्रति मोह न हो, पदार्थों में आसक्ति न हो, जिसके हृदय में विद्वेष का भाव न हो। यही नहीं, अहिंसक रीति से अधिकारों के संरक्षण की कल्पना एक सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव समाज में ही सम्भव हो सकती है। यदि विरोधी पक्ष मानवीय स्तर पर हो, तब तो अहिंसक विरोध सफल हो जाता है, लेकिन यदि विरोधी पक्ष पाशविक स्तर पर हो, तो अहिंसक विरोध की सफलता संदेहास्पद बन जाती है। पुनः, मानव में मानवीय गुणों की संभावना की आस्था ही अहिंसक विरोध का केन्द्रीय तत्त्व है। मानवीय गुणों में हमारी आस्था जितनी