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पापमुक्त हो, तो (हिंसादि) क्रिया करने पर भी निर्वाण अवश्य मिलता है।' - यह एक मिथ्या धारणा है। यदि गीता का यह मन्तव्य हो कि अन्तस में अहिंसक वृत्ति के होते हुए भी हिंसात्मक क्रिया की जा सकती है, तो जैन विचारणा का स्पष्ट रूप से उसके साथ विरोध है। जैन विचारणा कहती है कि अंतस में अहिंसक वृत्ति के होते हुए हिंसा नहीं की जा सकती, यद्यपि हिंसा हो सकती है। हिंसा किया जाना सदैव ही संकल्पात्मक होगा और आंतरिक विशुद्धि के होते हुए हिंसात्मक कर्म का संकल्प संभव ही नहीं है (सूत्र - कृतांगसूत्र 2/6/35)।
वस्तुतः, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में जैन दृष्टि का सार यह है कि हिंसा चाहे बाह्य हो या आंतरिक, वह आचरण का नियम नहीं हो सकती है। दूसरे, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पक्ष की अवहेलना मात्र कतिपय अपवादात्मक अवस्थाओं में ही क्षम्य हो सकती है। हिंसा का हेतु मानसिक प्रवृत्तियां, कषाय हैं- यह मानना तो ठीक है, लेकिन यह मानना कि मानसिक वृत्तियों या कषायों के अभाव में की गई द्रव्य हिंसा हिंसा नहीं है, यह उचित नहीं कहा जा सकता। यह ठीक है कि संकल्पजन्य हिंसा अधिक निकृष्ट है, लेकिन संकल्प के अभाव में होने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है या उससे कर्म आस्रव नहीं होता है-यह जैन कर्मसिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। व्यावहारिक जीवन में हमें इसको हिंसा मानना होगा।
पूर्ण अहिंसा के आदर्श की सम्भावना का प्रश्न
यद्यपि अन्तस और बाह्य रूप से पूर्ण अहिंसा के आदर्श की उपलब्धि जैन विचारणा का साध्य है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में इस आदर्श की उपलब्धि सहज नहीं है। अहिंसा एक आध्यात्मिक आदर्श है और आध्यात्मिक स्तर पर ही इसकी पूर्ण उपलब्धि संभव है। भौतिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा की कल्पना समीचीन नहीं है। अहिंसक जीवन की संभावनाएं भौतिक स्तर से ऊपर उठने पर विकसित होती हैं। व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिकता के स्तर से ऊपर उठता जाता है, अहिंसक जीवन की पूर्णता की दिशा में बढ़ता जाता है। इसी आधार पर, जैन विचारणा में अहिंसा की दिशा में बढ़ने के लिए कुछ स्तर निर्धारित किए गए हैं।
हिंसा का वह रूप, जिसे संकल्पजा हिंसा कहा जाता है, सभी के लिए त्याज्य है।