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________________ नामक अध्याय में बौद्ध धर्म की इस धारणा की आलोचना की गई है। हिंसा-अहिंसा का प्रश्न व्यक्ति की मनोदशा के साथ जुड़ा हुआ है, न कि बाह्य घटना पर । किन्तु हम देखते हैं कि जैन परम्परा के परवर्ती ग्रन्थों में मनोदशा को ही हिंसा-अहिंसा के विवेक का आधार बनाया गया है। जहां द्रव्य हिंसा (बाह्य घटना) और भाव हिंसा (मनोदशा) का प्रश्न सामने आया, वहां यह माना जाने लगा कि भाव - हिंसा ही वास्तविक हिंसा है। भगवती (7/1/6-7), प्रवचनसार (3/17), ओघनियुक्ति (748- 758), निशीथचूर्णि (92) आदि ग्रंथों में एक स्वर से यह बात स्वीकार की गई है कि जो अप्रमत्त और कषायरहित है, उसके द्वारा बाह्य रूप से होने वाली हिंसा वस्तुतः हिंसा नहीं है। यह भी माना गया कि जिस हिंसा में हिंसा करते हुए जितनी मनोभावों की क्रूरता अपेक्षित है, वह हिंसा उतनी ही निकृष्ट कोटि की है। वनस्पति की हिंसा की अपेक्षा पशु की हिंसा में और पशु की हिंसा की अपेक्षा मनुष्य की हिंसा में अधिक क्रूरता अपेक्षित है, अतः हिंसक भावों या कषायों की तीव्रता के कारण मनुष्य की हिंसा अधिक निकृष्ट कोटि की होगी। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंसा - अहिंसा का विवेक रखते समय बाह्य घटना पर ही नहीं, वरन् कर्त्ता की मनोवृत्ति पर भी विचार करना होता है। अहिंसा के बाह्य पक्ष की अवहेलना उचित नहीं यह ठीक है कि हिंसा-अहिंसा के विचार में भावात्मक या आंतरिक पहलू महत्वपूर्ण हैं, किन्तु बाह्य पक्ष की अवहेलना उचित नहीं है। वैयक्तिक साधना की दृष्टि से आध्यात्मिक एवं आंतरिक पक्ष ही सर्वाधिक मूल्यवान् होता है, लेकिन जहां सामाजिक एवं व्यावहारिक जीवन का प्रश्न है, वहां हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पहलू को झुठलाया नहीं जा सकता, क्योंकि व्यावहारिक जीवन और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से जिस पर विचार किया जा सकता है, वह तो आचरण का बाह्य पक्ष ही है। गीता और बौद्ध दर्शन की अपेक्षा जैन विचारणा ने इस बाह्य पक्ष पर गहनतापूर्वक विचार किया है। वह यह मानती है कि किन्हीं अपवादात्मक अव्यवस्थाओं को छोड़कर सामान्यतया जो विचार में है, जो आंतरिक है, वही व्यवहार में प्रकट होता है। अंतरंग और बाह्य अथवा विचार और आचार के संबंध में द्वैत-दृष्टि उसे स्वीकार्य नहीं है। उसकी दृष्टि में अंतस में अहिंसकवृत्ति के होते हुए बाह्य रूप में हिंसक आचरण करना एक प्रकार की भ्रांति है, छलावा है, आत्मप्रवंचना है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि 'यदि हृदय |||
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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