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षट्जीवनिकाय की हिंसा के निषेध तक इसने अर्थ विस्तार पाया है, तो दूसरी ओर प्राणी वियोजन के बाह्यरूप से द्वेष, दुर्भावना और असावधानी (प्रमाद) के आंतरिक रूप तक इसने गहराइयों में प्रवेश किया है। पुनः, अहिंसा ने 'हिंसा मत करो' के निषेधात्मक अर्थ से लेकर दया, करुणा, दान, सेवा, सहयोग के विधायक अर्थ तक भी अपनी यात्रा की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा का अर्थविकास त्रिआयामी (थ्री डायमेंशनल) है, अतः जब भी हम अहिंसा की अवधारणा को लेकर कोई चर्चा करना चाहते हैं, तो हमें उसके सभी पहलुओं की ओर ध्यान देना होगा।
जैनागमों के संदर्भ में अहिंसा के अर्थ की व्याप्ति को लेकर कोई चर्चा करने के पूर्व हमें यह देख लेना होगा कि अहिंसा की इस अवधारणा ने कहां कितना अर्थ पाया है?
यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में अहिंसा का अर्थ विस्तार
मूसा धार्मिक जीवन के लिए जो दस आदेश प्रसारित किए थे, उनमें एक है- 'तुम हत्या मत करो', किन्तु इस आदेश का अर्थ यहूदी समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अपनी जातीय भाई की हिंसा नहीं करने से अधिक नहीं रहा। धर्म के नाम पर तो हम स्वयं पिता को अपने पुत्र की बलि देते हुए देखते हैं। इस्लाम ने चाहे अल्लाह को ‘रहिमानुर्रहीम' (करुणाशील) कहकर सम्बोधित किया हो और चाहे यह भी मान लिया हो कि सभी जीवधारियों को जीवन उतना ही प्रिय है, जितना तुम्हें अपना है, किन्तु उसमें अल्लाह की इस करुणा का अर्थ स्वधर्मियों तक ही सीमित रहा । इतर मनुष्यों के प्रति इस्लाम आज तक संवेदनशील नहीं बन सका । पुनः यहूदी और इस्लाम-दोनों ही धर्मों में धर्म के नाम पर पशुबलि को सामान्य रूप से आज तक स्वीकृत किया जाता है। इस प्रकार, इन धर्मों में मनुष्य की संवेदनशीलता स्वजाति और स्वधर्मी अर्थात् अपनों से अधिक अर्थविस्तार नहीं पा सकी है। इस संवेदनशीलता का अधिक विकास हमें ईसाई धर्म में दिखाई देता है। ईसा, शत्रु के प्रति भी करुणाशील होने की बात कहते हैं। वे अहिंसा, करुणा और सेवा के क्षेत्र में अपने और पराए, स्वधर्मी और विधर्मी, शत्रु • और मित्र के भेद से ऊपर उठ जाते हैं। इस प्रकार उनकी करुणा सम्पूर्ण मानवता के प्रति बरसी है। यह बात अलग है कि मध्ययुग में ईसाईयों ने धर्म के नाम पर खून की होली खेली हो, और ईश्वर - पुत्र के आदेशों की अवहेलना की हो, किन्तु ऐसा तो हम सभी करते हैं। धर्म के नाम पर पशु बलि की स्वीकृति ईसाई धर्म में भी नहीं देखी जाती है। इस
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