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________________ प्रकार, उसमें अहिंसा की अवधारणा अधिक व्यापक बनी है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सेवा तथा सहयोग के मूल्यों के माध्यम से अहिंसा को एक विधायक दिशा भी प्रदान की गई है। फिर भी, सामान्य जीवन में पशुवध और मांसाहार के निषेध की बात वहां नहीं उठाई गई है। अतः उसकी अहिंसा की अवधारणा मानवता तक ही सीमित मानी जा सकती है। वह भी समस्त प्राणी जगत् की पीड़ा के प्रति संवेदनशील नहीं बन सका । भारतीय चिन्तन में अहिंसा का अर्थ विस्तार चाहे वेदों में 'पुमांसु परिपातु विश्वतः' अथवा 'मित्रास्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे' (यजुर्वेद 36.18) के रूप में सर्व प्राणियों के प्रति मित्रभाव की कामना की गई हो, किन्तु वेदों की यह अहिंसक चेतना मानवजाति तक ही सीमित रही है। मात्र इतना ही नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें शत्रु वर्ग के विनाश के लिए प्रार्थनाएं भी की गई हैं। यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही, वेद - विहित हिंसा को हिंसा की कोटि में नहीं माना गया। इस प्रकार, उनमें धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा को समर्थन ही दिया गया। वेदों में अहिंसा की अवधारणा का अर्थविस्तार उतना ही है, जितना कि यहूदी और इस्लाम धर्म में। अहिंसक चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है- श्रमण परम्परा में। इसका मुख्य कारण यह था कि गृहस्थ जीवन में रहकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर पाना सम्भव नहीं था। जीवनयापन अर्थात् आहार, सुरक्षा आदि के लिए हिंसा आवश्यक तो है ही, अतः उन सभी धर्म परम्पराओं में, जो मूलतः निवृत्तिपरक या संन्यासमार्गीय नहीं थीं, अहिंसा को उतना अर्थविस्तार प्राप्त नहीं हो सका, जितना श्रमण धारा या संन्यासमार्गीय परम्परा में संभव था। यद्यपि श्रमण परम्पराओं के द्वारा हिंसापरक यज्ञ यागों की आलोचना और मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास का एक परिणाम यह हुआ कि वैदिक परम्परा में भी एक ओर वेदों के पशु हिंसापरक पदों का अर्थ अहिंसक रीति से किया जाने लगा, महाभारत के शांतिपर्व में राजा वसु का आख्यान (अध्याय 337-338) इसका प्रमाण है, तो दूसरी ओर धार्मिक जीवन के लिए कर्मकाण्ड को अनुपयुक्त मानकर औपनिषदिक धारा के रूप में ज्ञानमार्ग का और भागवत धर्म के रूप में भक्तिमार्ग का विकास हुआ। इसमें अहिंसा का अर्थविस्तार सम्पूर्ण प्राणीजगत् अर्थात् त्रस चीजों की हिंसा के निषेध तक हुआ है। वैदिक परम्परा में संन्यासी को कंदमूल एवं फल 81
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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