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________________ संकल्प में वह समता (सामयिक) को स्वीकार करता है और ममता का परित्याग करता है, किन्तु क्या धन-सम्पदा, संतान, परिवार आदि के प्रति ममता का परित्याग समाज का परित्याग है? वस्तुतः, समस्त एषणाओं का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है। संन्यासी का वह संकल्प उसे समाज-विमुख नहीं बनाता है, अपितु समाज-कल्याण की उच्चतर भूमिका पर अधिष्ठित करता है, क्योंकि सच्चा लोकहित निःस्वार्थता एवं वीतरागता की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है। जैनधर्म एवं बौद्धधर्म संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता है। भगवान् बुद्ध का यह आदेश- 'चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देव मनुस्सानं (विनयपिटक, महावग्ग), लोकमंगल को संन्यासी का सर्वोपरि कर्तव्य बताता है।' अतः, हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है, वह सामाजिकता विरोधी नहीं है। संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति होता है, जो आदर्श समाज रचना के लिए प्रयत्नशील रहता है। अब हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता पर चर्चा करना चाहेंगे___ मोक्ष प्रत्यय – राग-द्वेष सामाजिक जीवन के लिए बाधक है। यदि इन मनोवृत्तियों से मुक्त होना ही मुक्ति का हार्द है, तो मुक्ति का सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। मोक्ष एक मरणोत्तर अवस्था नहीं है, अपितु वह हमारे जीवन से सम्बन्धित है। मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया है, इसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्य है। जो लोग मोक्ष को एक मरणोत्तर अवस्था मानते हैं, वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। आचार्य शंकर लिखते हैं - देहस्य मोक्षो न मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलोः। अविद्या हृदय ग्रन्थि मोक्षो यतस्ततः।। -विवेकचूडामणि, 559 . वस्तुतः, मुक्ति का अर्थ है- राग-द्वेष, तृष्णा, कषाय आदि विकारों से मुक्ति। मरणोत्तर मोक्ष या विदेह-मुक्ति साध्य नहीं है। उसके लिए कोई साधना अपेक्षित नहीं है, साध्य तो है- वीतरागता। जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य परिणाम है, उसी प्रकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति या वीतरागता का अनिवार्य परिणाम है, अतः जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है, वह तो वीतरागता ही है। जीवन मुक्ति या वीतराग दशा के प्रत्यक्ष की सामाजिक सार्थकता से हम इन्कार भी नहीं कर सकते,
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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