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________________ सम्पूर्ण मानव जाति में सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण कर सकती है। जैन दर्शन में राग के साथ-साथ मान (अहंकार) के प्रत्यय के विगलन पर भी समान रूप से बल दिया गया है। अहंकार भाव भी हमारे सामाजिक सम्बन्धों में बाधा ही उत्पन्न करता है। शासन करने की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं और इनके कारण सामाजिक जीवन में विषमता एवं टकराहट उत्पन्न होती है। यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें, तो उसके मूल में हमारी आसक्ति, रागात्मकता या अहं ही प्रमुख हैं। आसक्ति, ममत्व भाव या राग के कारण ही मनुष्य में संग्रह, आवेश और कपटाचार के तत्त्व जन्म लेते हैं। संग्रह की मनावृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार एवं विश्वासघात के तत्त्व विकसित होते हैं। इसी प्रकार, आवेश की मनोवृत्ति के कारण क्रूर व्यवहार, संघर्ष, युद्ध एवं हत्याएँ होती हैं। इसी तरह कपट की मनोवृत्ति अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार को जन्म देती है। अतः, यह कहना उचित ही होगा कि भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने एवं सामाजिक समत्व की स्थापना में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है। समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता है, जीता है और विकसित होता है; यह भारतीय चिन्तन का महत्वपूर्ण निष्कर्ष है। वस्तुतः, आसक्ति या राग तत्त्व की उपस्थिति में सच्चा लोकहित भी फलित नहीं होता है। आसक्ति या कर्मफल की अपेक्षा के साथ किया गया कोई भी लोकहित का कार्य स्वार्थपरता से शून्य नहीं होता है। जिस प्रकार शासन की ओर से नियुक्त समाज-कल्याण अधिकारी लोकहित को करते हुए भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता नहीं है, क्योंकि वह जो कुछ करता है, वह केवल अपने वेतन के लिए करता है, इस प्रकार आसक्ति या राग भावना से युक्त व्यक्ति चाहे, बाहर से लोकहित का कर्ता दिखाई दे, किन्तु वह सच्चे अर्थ में लोकहित का कर्ता नहीं है। अतः, जैन दर्शन ने आसक्ति से या राग से ऊपर उठकर लोकहित करने के लिए एक यथार्थ भूमिका प्रदान की, सराग लोकहित या फलासक्ति से युक्त लोकहित छद्म स्वार्थ ही है। अतः, भारतीय दर्शन में अनासक्ति एवं वीतरागता के प्रत्यय पर जो कुछ बल दिया है, वह सामाजिकता का विरोधी नहीं है। सामान्यतया, जैन दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को समाज निरपेक्ष माना जाता है, किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष है? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है, किन्तु इससे क्या वह असामाजिक हो जाता है? संन्यास के
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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