________________
क्योंकि जीवन मुक्त तीर्थंकर एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो सदैव लोक कल्याण के लिए प्रस्तुत रहता है। जैन दर्शन में तीर्थंकर, बौद्ध दर्शन में अहँत् एवं बोधिसत्व की जो धारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है, उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहँच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है। वह लोकमंगल और मानव कल्याण का एक महान् आदर्श माना जा सकता है, क्योंकि जन-जन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है। मात्र इतना ही नहीं, भारतीय चिन्तन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्व दिया गया है। बौद्ध दर्शन में भी बोधिसत्व का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है।
बोधिसत्व और तीर्थंकर सदैव ही दीन और दुःखीजनों को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। वस्तुतः, मोक्ष अकेला पाने की वस्तु नहीं है। इस सम्बन्ध में विनोबा भावे के उद्गार विचारणीय हैं-'जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वह उसके हाथ से निकल जाता है। 'मैं' के आते ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष- यह वाक्य ही गलत है। 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है।' (आत्मज्ञान और विज्ञान, पृष्ठ 71)। इसी प्रकार, वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति ही है, 'मैं' अथवा 'अहं' भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आप को समष्टि में, समाज में लीन कर देना होता है। मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो कि अपने व्यक्तित्व को समष्टि में, समाज में विलीन कर दे। इस प्रकार, यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी है, गलत है। मोक्ष वस्तुतः दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के अधिकांश दुःख मानवीय संवेगों के कारण ही हैं, अतः मुक्ति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि संवेगों से मुक्ति है और इस रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक- दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। दुःख, अहंकार एवं मानसिक क्लेश से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयता और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। अन्त में, हम कह सकते हैं कि जैन दर्शन की दृष्टि पूर्णतया सामाजिक और लोकमंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र मंगल कामना है
सर्वे सुखिनः संतु। सर्वे संतु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यतु। मा कश्चित् दुःखमाप्नुयात्।।