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3. परिग्रह या संचय की एक सीमा निर्धारित करना, अर्थात् आवश्यकता से अधिक
संचय नहीं करना। इन तीनों आचार नियमों के पीछे एक ही जीवनदृष्टि रही है और वह है- संयमित जीवन शैली का विकास करना, जो भारतीय संस्कृति का प्राण है।
यह सत्य है कि जीवन जीने के लिए भोगोपभोग आवश्यक हैं और भोगोपभोग के लिए संचय आवश्यक है, किन्तु महावीर का जीवन दर्शन कहता है कि यह मर्यादित होना चाहिए। असीमित भोगाकांक्षा और संचयवृत्ति हमारे जीवन में तनाव या विक्षोभ उत्पन्न करती है, वैयक्तिक जीवन की समता को और वैश्विक शांति को भंग करती है, अतः इन पर नियंत्रण आवश्यक है। इन पर नियंत्रण से ही सम्यक् जीवनदृष्टि का विकास संभव होगा। यह ठीक है कि भोग आवश्यक है, किन्तु वह त्यागपूर्वक, संयमपूर्वक या मर्यादापूर्वक ही होना चाहिए। इसके लिए ईशावास्योपनिषद् का 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा' सूत्रवाक्य ही हमारा मार्गदर्शक हो सकती है। दूसरे, आज हम भोग के प्राकृतिक साधनों का अमर्यादित दोहन कर जिस उपभोक्तावादी संस्कृति को अपना रहे हैं, वह उपभोक्तावादी जीवनदृष्टि है। इसमें हम आवश्यकतानुसार उत्पादन की बात भूलकर इच्छाओं के उद्वेलन द्वारा अधिकतम उपभोग के लिए अधिकतम उत्पादन और अधिकतम मौद्रिक लाभ के सिद्धान्त पर चल रहे हैं। आज के उत्पादन का सूत्र वाक्य है'अनावश्यक मांगें बढ़ाओ, अपना माल खपाओ और अधिकतम मुनाफा कमाओ।'
महावीर का चिन्तन कहता है कि हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं, इसके निर्णायक हम नहीं, प्रकृति या हमारी दैहिक संरचना है । भोग इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं, अपितु संयमी जीवन की दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है। आपको जीवन जीने का अधिकार है, किन्तु तब तक, जब तक आपका शरीर साधना में सहायक है, आपका जीवन दूसरों के लिए भार - रूप नहीं बना है। भारतीय जीवनदृष्टि के अनुसार भोग और त्याग दोनों - संयमित जीवन जीने के लिए हैं, अमर्यादित जीवन जीने के लिए नहीं ।
साथ ही, संचयवृत्ति भी व्यक्ति की आवश्यकता पर आधारित है, न कि उसकी असीम तृष्णा पर। महावीर का दर्शन कहता है कि जितनी आवश्यकता है, उतना ही संचय करो। इस सम्बन्ध में महाभारत का निम्न श्लोक हमारा मार्गदर्शक है, कहा है
यावत् भ्रियते जठरं तावत् स्वत्वं देहीनाम् । अधिकोयोऽभिमन्यते स्तेन एव सः ।
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