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________________ अर्थात्, पेट के लिए जितना आवश्यक है, उतने पर ही व्यक्ति का अधिकार है, जो इससे अधिक पर अपना अधिकार जमाता है, वह चोर है। भारतीय चिन्तन इससे भी एक कदम आगे बढ़कर कहता है- जो धन, सम्पत्ति आदि पर-पदार्थ हैं, उन पर हमारा कोई स्वामित्व हो ही नहीं सकता। 'पर' को अपना मानना उस पर मालिकाना हक जताना मिथ्यादृष्टि है। हमें आवश्यकतानुरूप वस्तु के 'उपयोग' का अधिकार है, स्वामित्व का अधिकार नहीं है। (We have only right to use them, not the ownership) दूसरे, यह भी कहा जाता है कि यदि पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति या रागभाव नहीं होगा-उदासीनवृत्ति होगी, तो फिर जीवन में सक्रियता समाप्त हो जाएगी, व्यक्ति अकर्मण्य बन जाएगा, क्योंकि रागात्मकता या ममत्ववृत्ति या स्वामीत्व की भावना ही व्यक्ति को सक्रिय बनाए रखती है। इसके उत्तर में महावीर की जीवनदृष्टि एक सूत्र देती है कि -'कर्तव्यबुद्धि (Sense of duty) से जियो, न कि ममत्वबुद्धि (Sense of attachment) से।' इस सम्बन्ध में जैन परम्परा में निम्न दोहा प्रचलित है, जो जीवनदृष्टि को स्पष्ट कर देता है सम्यक् दृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब परिपाल। अन्तरसूं न्यारो रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल ।। महावीर के दर्शन का सार यह है कि 'कर्तव्यबुद्धि से जीवन जियो, ममत्वबुद्धि से नहीं।'
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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