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________________ और वृक्ष में होता है। बीज में वृक्ष निहित है, किन्तु अभिव्यक्त नहीं हुआ है। उसी प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति में परमात्म तत्त्व निहित है, किन्तु वह पूर्णरूप से अभिव्यक्त नहीं हुआ है। बीज जब अपने आवरण को तोड़कर विकास की दिशा में आगे बढ़ता है, तो वह वृक्ष का रूप ले लेता है। इसी प्रकार से व्यक्ति भी अपने वासनारूपी आवरणों को तोड़कर परमात्म अवस्था को प्राप्त कर सकता है। परमात्मा को पाने का अर्थ अपने में निहित परमात्म तत्त्व की अभिव्यक्ति ही है, परमात्मा कोई बाह्य वस्तु नहीं है, वह तो हमारा ही शुद्ध स्वरूप है, इसीलिए जैन दर्शन में परमात्म भक्ति का लक्ष्य है- 'वन्दे तद्गुण लब्धये'। अर्थात् परमात्मस्वरूप की उपलब्धि ही व्यक्ति की सम्पूर्ण साधना का लक्ष्य है। परमात्म सत्ता व्यक्ति से भिन्न नहीं है, वह बाहर नहीं है, वह हममें ही निहित है, अतः जैन दर्शन में परमात्म भक्ति का अर्थ कोई याचना या समर्पण नहीं है, अपितु अपनी अस्मिता को पूर्ण अभिव्यक्ति देना है। किसी जैन कवि ने कहा है अज कुलगत केशरी रे लहे रे निजपद सिंह निहार। तिम प्रभु भक्ति भवि लहे रे निज आतम संभार।। स्वतंत्रता व्यक्ति का स्वतःसिद्ध अधिकार है महावीर के दर्शन की मान्यता है कि स्वतंत्रता व्यक्ति का स्वतःसिद्ध अधिकार है। हम तत्त्वतः स्वतंत्र हैं, परतंत्रता हमारी ममत्ववृत्ति के कारण हमारे स्वयं के द्वारा आरोपित है। दूसरे शब्दों में, स्वतंत्रता हमारा निज स्वभाव है और परतंत्रता हमारा विभाव है, विकृत मनोदशा है, अतः विभाव को छोड़कर स्वभाव में आना ही स्वतंत्रता की या आत्मपूर्णता की उपलब्धि है और भारतीय दर्शनों के अनुसार भी 'आत्मा का परमात्मा बन जाना,यही मुक्ति है'। परतंत्रता 'पर' के कारण नहीं है, वह 'स्व' पर आरोपित है। 'पर' में ममत्ववृत्ति या मेरेपन का आरोपण कर व्यक्ति स्वयं ही बन्धन में आ जाता है। हमारे बन्धन का हेतु या कारण हम स्वयं हैं। भारतीय संस्कृति मानती है कि मिथ्या दृष्टिकोण, असंयम, प्रमाद (असहजता), कषाय और मन-वचन-काया की स्वछंद प्रवृत्तियों के कारण व्यक्ति बंधन में आता है। परतंत्रता तो स्वयं आरोपित है, अतः उससे मुक्ति संभव है। गुलामी, चाहे वह 'मन' की हो या ऐन्द्रिक विषयों की तृष्णाजनित, वह हमारे द्वारा ही ओढ़ी गई है, अतः सम्यक् जीवन दृष्टि के विकास के साथ मुक्ति के द्वार स्वतः उद्घाटित हो जाते हैं। भारतीय दर्शनों के अनुसार संसार में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो इस स्वयं के द्वारा
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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