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________________ 'स्यात् नास्ति' नामक भंग वस्तुतत्त्व के अभावात्मक धर्म या धर्मों की अनुपस्थिति या नास्तित्व की सूचना देता है। वह यह बताता है कि वस्तु में स्व से भिन्न पर-चतुष्टय का अभाव है, जैसे-यह घड़ा ताम्बे का नहीं है, भोपाल नगर से बना हुआ नहीं है, ग्रीष्म ऋतु का बना हुआ नहीं है, कृष्ण वर्ण का नहीं है आदि। मात्र इतना ही नहीं, यह भंग इस बात को भी स्पष्ट करता है कि घड़ा सिर्फ घड़ा है, पुस्तक, टेबल, कलम, मनुष्य आदि नहीं है। जहां प्रथम भंग यह कहता है कि घड़ा, घड़ा ही है, वहां दूसरा भंग यह बताता है कि घड़ा, घट इतर अन्य कुछ नहीं है। कहा गया है कि 'सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च', अर्थात् सभी वस्तुओं की सत्ता स्वरूप से है पररूप से नहीं। यदि वस्तु में अन्य वस्तुओं गुणधर्मों की सत्ता भी मान ली जाएगी, तो फिर वस्तुओं का पारस्परिक भेद ही समाप्त हो जावेगा और वस्तु का स्व-स्वरूप ही नहीं रह जावेगा, अतः वस्तु में पर-चतुष्टय का निषेध करना द्वितीयभंग है। प्रथम भंग बताता है कि वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता है कि वस्तु क्या नहीं है। सामान्यतः, इस द्वितीय भंग को 'स्यात् नास्ति घटः’ अर्थात् किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है, इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु इसके प्रस्तुतिकरण का यह ढंग थोड़ा भ्रांतिजनक अवश्य है। स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व का जो विधान किया गया था, उसी का द्वितीय भंग में निषेध कर दिया गया है और ऐसी स्थिति में स्याद्वाद को संदेहवाद या आत्मा विरोधी कथन करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रांति हो जाना स्वाभाविक है। शंकरप्रभृति विद्वानों ने स्याद्वाद की जो आलोचना की थी, उसका मुख्य आधार यही भ्रांति है। ‘स्यात् अस्ति घटः' और 'स्यात् नास्ति घटः' में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से ओझल कर या उसे सम्भावना के अर्थ में ग्रहण कर 'अस्ति' और 'नास्ति' पर बल दिया जाता है, तो आत्मविरोध का आभास होने लगता है। जहां तक मैं समझ पाया हूँ, स्याद्वाद का प्रतिपादन करने वाले किसी आचार्य की दृष्टि में द्वितीय भंग का कार्य प्रथम भंग में स्थापित किए गए गुणधर्म का उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो प्रथम भंग में अस्ति रूप माने गए गुण धर्म से इतर गुण धर्मों का निषेध करना है, अथवा फिर अपेक्षा को बदलकर उसी गुण धर्म का निषेध करना होता है और इस प्रकार द्वितीय भंग प्रथम भंग के कथन को पुष्ट करता है, खण्डित नहीं । यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से प्रथम भंग का निषेधक या विरोधी मान लिया जावेगा तो निश्चय ही यह [11
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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