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________________ अवक्तव्य है अथवा (अ) - उ वि नहीं है (अ)- उ अवक्तव्य है 7. स्यात् अस्ति च, अउ वि है. नास्ति च (अ) - उ वि नहीं है. अवक्तव्य च (अ)- उ अवक्तव्य है अथवा - उ वि है. अं- उवि नहीं है (अ) य उ अवक्तव्य है नित्य नहीं है, किन्तु यदि अपनी अनंत अपेक्षाओं की दृष्टि से विचार करते हैं, तो आत्मा अवक्तव्य है। यदि द्रव्यदृष्टि से विचार करते हैं, तो आत्मा नित्य है और यदि पर्यायदृष्टि से विचार करते हैं, तो आत्मा नित्य नहीं है, किन्तु यदि अपनी अनंत अपेक्षाओं की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। सप्तभंगी प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं का उल्लेख किया है, किन्तु जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ऐसी चार अपेक्षाएं मानी हैं, उसमें भी भाव अपेक्षा व्यापक है। भाव अपेक्षा में वस्तु की अवस्थाओं (पर्यायों) एवं गुणों-दोनों पर विचार किया जाता है। किन्तु यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की सम्भावनाओं पर विचार करें, तो ये अपेक्षाएं भी अनन्त होंगी, क्योंकि वस्तुत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। अपेक्षाओं की इन विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया जा सकता है, किन्तु इस छोटे से लेख में यह सम्भव नहीं है। ___ इस सप्तभंगी का प्रथम भंग ‘स्याद् अस्ति' है। यह स्वचतुष्टय को अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक धर्म या धर्मों का विधान करता है, जैसे- अपने द्रव्य की अपेक्षा से यह घड़ा मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा से इंदौर नगर में बना हुआ है, काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु का बना हुआ है, भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का है या घटाकार है आदि। इस प्रकार, वस्तु के स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, एवं भाव की अपेक्षा से उसके भावात्मक गुणों का विधान करना- यह प्रथम 'अस्ति ' नामक भंग का कार्य है। दूसरा
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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