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________________ सिद्धांत संशयवाद या आत्मविरोध के दोषों से ग्रसित हो जावेगा, किन्तु ऐसा नहीं है। यदि प्रथम भंग में 'स्यादस्त्येव घटः' का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा है ही और द्वितीय भंग में 'स्यान्नास्त्येव घटः' का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा ही नहीं है- ऐसा करेंगे तो आभास होगा कि दोनों कथन विरोधी हैं, क्योंकि इन कथनों के भाषायी स्वरूप से ऐसा आभास होता है कि इन कथनों में घट के अस्तित्व और नास्तित्व को ही सूचित किया गया है। जबकि जैन आचार्यों की दृष्टि में इन कथनों का बल उनमें प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द में ही है, वे यह नहीं मानते हैं कि द्वितीय भंग, प्रथम भंग में स्थापित सत्य का प्रतिषेध करता है। दोनों भंगों में घट के संबंध में जिनका विधान या निषेध किया गया है, वे अपेक्षाश्रित धर्म हैं न कि घट का स्वयं का अस्तित्व या नास्तित्व। पुनः, दोनों भंगों के 'अपेक्षाश्रित धर्म' एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का निषेध हुआ है, वे दूसरे अर्थात् पर-चतुष्टय के हैं, अतः प्रथम भंग के विधान और द्वितीय भंग के निषेध में कोई आत्मविरोध नहीं है। मेरी दृष्टि में इस भ्रांति का मूल कारण प्रस्तुत वाक्य में उस विधेय पद के स्पष्ट उल्लेख का अभाव है, जिसका कि विधान या निषेध किया जाता है। यदि 'नास्ति' पद को विधेय स्थानीय माना जाता है, तो पुनः यहां यह भी प्रश्न उठ सकता है कि जो घट अस्ति रूप है, वह नास्ति रूप कैसे हो सकता है? यदि यह कहा जाए कि परद्रव्यादि की अपेक्षा से घट नहीं है, तो परद्रव्यादि घट के अस्तित्व के निषेधक कैसे बन सकते हैं? यद्यपि यहां पूर्वाचार्यों का मन्तव्य स्पष्ट है कि वे घट का नहीं, अपितु घट में द्रव्यादि का निषेध करना चाहते हैं। वे कहना यह चाहते हैं कि घट पट नहीं है या घट में पट आदि के धर्म नहीं हैं, किन्तु स्मरण रखना होगा कि इस कथन में प्रथम और द्वितीय भंग में अपेक्षा नहीं बदली है। यदि प्रथम भंग से यह कहा जावे कि घड़ा मिट्टी का है और दूसरे भंग में यह कहा जावे कि घड़ा पीतल का नहीं है, तो दोनों में अपेक्षा एक ही है, अर्थात् दोनों कथन द्रव्य की या उपादान की अपेक्षा से है। अब दसरा उदाहरण लें। किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य है, किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य नहीं है। यहां दोनों भंगों में अपेक्षा बदल जाती है। यहां प्रथम भंग में द्रव्य की अपेक्षा से घड़े को नित्य कहा गया और दूसरे भंग में पर्याय की अपेक्षा से घड़े को नित्य नहीं कहा गया है। द्वितीय भंग के प्रतिपादन के ये दोनों रूप भिन्न भिन्न हैं। दूसरे, यह कहना कि परचतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है या पट की अपेक्षा घट नहीं है, भाषा की दृष्टि से थोड़ा भ्रांतिजनक अवश्य है, क्योंकि परचतुष्टय वस्तु की
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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