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जो अहंकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता हुआ भी मारता नहीं है और वह (अपने कर्मों के कारण) बंधन में नहीं पड़ता।
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धम्मपद में भी कहा गया है- 'वीततृष्ण व्यक्ति ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजा सहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जीता है, क्योंकि वह पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है।" इस प्रकार, हम देखते हैं कि हिंसा और अहिंसा की विवेचना के मूल में प्रमाद या रागादि भाव ही प्रमुख तथ्य हैं।
संदर्भ
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अहिंसाए भगवतीए-एसा सा भगवती अहिंसा (प्रश्नव्याकरणसूत्र - 2 / 1 / 21-22) जे अइया, , जे य पडुप्पन्ना, जे आगमिस्सा-अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णविंति एवं परुविंतिसव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिधितव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोये खेयण्णाहिं पवेइए । ( आचारांग - 4 / 127 सं. आत्मारामजी, जैन स्थानक लुधियाना, 1964) 4/127)
एवं खुणाणिणो सारं जंण हिंसइ किंचनं ।
अहिंसा समय चेव एतांवतं वियाणिया । - सूत्रकृतांग 1/4/10
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तत्थिमं पढ़मं ठाणं महावीरेण देसियं ।
अहिंसा निउणआ दिट्ठा सव्वभूए सुसंजमो । - दशवैकालिक-6/91
धम्ममहिंसा समं नत्थि । भक्तिपरिज्ञा - 91
अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाया । - पुरुषार्थसिद्धयुपाय 42 सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्व सत्थाणं य । - भगवती आराधना 90
धर्मं समासतोऽहिंसा वर्णयन्ति तथागता । - चतुःशतक
न तेन अरिया होंति येन पाणानि हिंसति ।
अहिंसा सव्वपाणानं,अरियो ति पवुच्चति । - धम्मपद 270
जयवेरं पसवति दुःख सेति पराजितो। -
उपसन्तो सुखं सेति जयपराजयो। - धम्मपद 201
अंगुत्तरनिकाय, तीसरा निपात 153
गीता - 10 / 5-7, 16 / 2, 7/14
एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपिधीयते । - महाभारत, शांतिपर्व - 245 / 19, गीताप्रेस गोरखपुर,