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________________ प्रश्न के उत्तर में महावीर कहते हैं कि यह मानना उचित नहीं है कि उसकी प्रतिज्ञा भंग 36 नहीं हुई है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि संकल्प की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति ही हिंसा-अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्त्व है। परवर्ती जैन साहित्य में भी यह धारणा पुष्ट होती रही है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि 'सावधानीपूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे भी कभी-कभी कीट-पतंग आदि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं और दबकर मर जाते हैं, लेकिन उक्त हिंसा के निमित्त से सूक्ष्म कर्मबंध भी नहीं बताया गया है, क्योंकि वह अन्तस में सर्वतोभावेन उस हिंसा - व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पाप है। 7 जो विवेकवान्, अप्रमत्त साधक हृदय से निष्पाप है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा हो जाने वाली हिंसा भी कर्मनिर्जरा का कारण है, लेकिन जो प्रमत्त व्यक्ति है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं, वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है। मात्र यही नहीं, वरन् जो प्राणी नहीं मारे गए हैं, प्रमत्त उनका भी हिंसक है, क्योंकि वह अंतर में सर्वतोभावेन पापात्मा है। इस प्रकार, आचार्य का निष्कर्ष यही है कि केवल दृश्यमान् पापरूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता।' 38 39 .40 741 आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में लिखते हैं, कि 'बाहर में प्राणी मरे या जीये, आतताचारी प्रमत्त को अंदर में हिंसा निश्चित है, परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, संयताचारी है, उसकी बाहर से होने वाली हिंसा से कर्मबंध नहीं है । ' 1 आचार्य अमृतचंद्र सूरि लिखते हैं कि रागादि कषायों से मुक्त नियमपूर्वक आचरण करते हुए भी यदि प्राणाघात हो जाए, तो वह हिंसा, हिंसा नहीं है। 2 निशीथचूर्णि में भी कहा गया है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है। 43 इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन आचार्यों की दृष्टि में हिंसा-अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से आंतरिक रहा है। जैन आचार्यों के इस दृष्टिकोण के पीछे जो प्रमुख विचार है, वह यह है कि व्यवहारिक रूप में पूर्ण अहिंसा का पालन और जीवन में सद्गुण के विकास की दृष्टि से जीवन को बनाए रखने का प्रयास - ये दो ऐसी स्थितियाँ हैं, जिनको साथ-साथ चलाना सम्भव नहीं होता है, अतः जैन विचारकों को अंत में यही स्वीकार करना पड़ा कि हिंसा अहिंसा का संबंध बाहरी घटनाओं की अपेक्षा आंतरिक वृत्तियों से है। इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता और धम्मपद में भी मिलता है। गीता कहती है 111 106
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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