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जगजयवंत जीरावला
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विक्रम की 15वीं सदी में विद्यमान विधिपक्ष ( अंचल - गच्छ ) के नायक मेरुतुङ्गसूरि द्वारा रचित 'ॐ नमो देवदेवाय' प्रारंभ वाले जीरिकापल्लि - पार्श्व- स्तवन की सुबोधिका टीका, वाचक पुण्यसागरजी ने वि. सं. 1725 में श्रीमाल नगर में रचना' की थी। व्याख्यान शुरु करते समय उन्होंने जीरापल्ली-तीर्थ की और स्तवन की उत्पत्ति के संबंध में बताया है कि - 'श्रीपार्श्व जिन के निर्वाण के बाद शुभ नाम के प्रथम गणधर विहार करते मरुदेश में अर्बुदाचल (आबू) तीर्थ के पास में, रत्नपुर नामक नगर में पधारे थे । वहाँ पर मिथ्यादृष्टि होने पर भी भद्रिका (सरल) आशयवाला, चंद्र जैसे उज्जवल यश को प्राप्त चंद्रयशा राजा राज्य करता था। उसने धर्म की परीक्षा के लिए अनेक धर्म मतावलियों को पूछा था, परन्तु कहीं भी मन को चमत्कारित करे ऐसा धर्म प्राप्त नहीं किया। उसी समय गणधर देव का आगमन सुनकर उसने सोचा कि - 'ये भी महात्माजी कहे जाते हैं, उनको भी हमें पूछना चाहिए।' ऐसा सोचकर वह गणधर देव के पास में आया, नमस्कार करके बैठा । उसने धर्म पूछा। भगवंत ने भी जिनोपदिष्ट धर्म का उपदेश दिया उसको सुनकर राजा ऐसा हर्षित हुआ जिस प्रकार खजाने के दर्शन से दरिद्र को अत्यंत खुशी होती है। हर्षित होकर राजा ने जैन धर्म को स्वीकार किया। उसके बाद पार्श्वजिन के संगत अर्थवाद को गणधर देव के मुख से सुनकर के श्री पार्श्वनाथ प्रभु को वंदन नहीं कर सके इसलिए दुःखित (विषाद) होते राजा ने गणधर के उपदेश से साक्षात् श्री पार्श्वनाथ जिन के वंदन की फल प्राप्ति के लिए श्री पार्श्वजिन का बिंब कराया ; संघ ने उसको प्रतिष्ठित किया। उसके सामने अट्ठम् तप (तीन दिन के उपवास) करके गणधरदेव की आज्ञा (आम्नाय) अनुसार त्रैलोक्यविजय यंत्र का जाप करके उसने साक्षात् पार्श्वजिन के वंदन का फल प्राप्त किया था। उसके बाद राजा लंबे समय तक धर्म की आराधना करके अन्त समय समाधि - पूर्वक स्वर्ग को प्राप्त किया । उसके बाद कई कारणों से उस प्रतिमा को भूमि में निधिरूप - अदृश्य - गुप्त की थी। उसके बाद काफी समय गुजर जाने के पश्चात् वि. सं. 1109 (90) वर्ष में
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1. 'तद्गुरुणां प्रसादाच्च पुण्यसागर वाचकैः। पार्श्वनाथस्तवस्येयं कृता टीका सुबोधिका ।।6।। अक्षाक्ष्यश्व-क्षितिमित 1725 वर्षे मासेऽथ भाद्रपदसंज्ञे । शुक्लष्ट श्री श्रीमालाभिधे नगरे ।। 7 ।।
इति श्री जीरापल्लि पार्श्व स्तोत्रस्य टीका।' - वडोदरा - प्राच्यविद्यामंदिरनी वि. सं. 1779मा लखायेल प्रति ।
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