________________
जगजयवंत जीरावला
कहा ‘खेद मत कर, निर्दय पर, इन 9 (नौ) भागों को इकट्ठा करके तूं जल्दी नौ सेर प्रमाण लापशी में डाल ; सात दिन तक दोनों दरवाजे बन्द कर दे।' देव के ऐसे वचन को सुनकर के उस गोष्ठिक - अधिकारी ने उसी हिसाब से सब किया । इतने में सातवें दिन एक संघ आया, उत्सुकता से दरवाजा खोला तो उस मूर्ति पर दृष्टि पड़ी, इससे कुछ नहीं जुड़े हुए अवयवों वाली मूर्ति को लोगों ने देखा। क्योंकि उस मूर्ति के अंग पर अभी भी नौ खंड स्पष्टता से दिखाई देते थे।
का
इस तरफ अपने नगर में पहुँचते ही उन यवनों (शेखों) के घर जलने लगे, द्रव्य विनाश हुआ । ये सब देव ने किया ( का किया हुआ) ऐसा जानकर भयभीत होकर राजा ने अपने मंत्री को वहाँ भेजा, देव ने (मंत्री) स्वप्न में कहा कि - 'यदि यह राजा यहाँ आकर के अपना सिर मुण्डाए, तभी नगर का और राजा का कुशल होगा ।' उसी तरह करने से तथा अनेक भोग-योग करवाने से तथा अनेक प्रकार की प्रभावना करने से राजा समाधिमान् तथा सुखी हुआ। दूसरे भी उसी तरह से अपना सिर मुंडाना इत्यादि करने लगे, इसका कारण यह है कि लोग प्रायः गतानुगतिक दिखाई देते हैं।
इस तरह उत्तरोत्तर बढ़ते हुए महत्त्व (माहात्म्य) से सुशोभित ऐसे इस तीर्थ में देव ने एक बार अपने अधिकारी मनुष्य को स्वप्न में कहा कि- 'मेरे नाम से ही देव की दूसरी मूर्ति की स्थापना करो, कारण कि खंडित अंग वाली मूर्ति मुख्य स्थान में शोभायमान नहीं लगती।' उसके बाद श्री पार्श्वनाथ की नई मूर्ति की स्थापना की जो आज भी (ग्रंथकार के समय में - विक्रम की 16 वीं सदी के प्रारंभ में भी) दोनों लोक में (इस लोक में और परलोक) फल की अभिलाषा वाले मनुष्यों द्वारा पूजी जाती है। प्राचीन प्रतीमा को उसके बाई (जमणी) तरफ स्थापित की थी, जिसको नमस्कार, ध्वज-पूजा वगैरह पहले किया जाता था, जीर्ण होने के कारण 'दादापार्श्वनाथ' ऐसे नाम से कहे जाते थे। इनके सामने प्रायः मुण्डन वगैरह किया जाता है। ‘धांधल के संतान में यह सीहड 14 वां गोष्ठिक हुआ था।' ऐसा पूर्व के स्थविरों ने कहा है। जीरापल्ली का यह प्रबंध, जिस तरह से सुना, उसी तरह से मैंने किया है। हृदय में माध्यस्थ्य भाव रखकर बहुश्रुत (ज्ञानी) जनों उसको अवधारण' करें।'
1. 'जीरापल्ली - प्रबन्धोऽयं मया चक्रे यताश्रुतम् ।
हृदि माध्यस्थ्यमास्थायावधार्यश्च बहुश्रुतैः ।।'
-
उपदेश सप्तति (आ. सभा अधि. 2, आ. 6, श्वे. 40 )
51