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________________ जगजयवंत जीरावला पार्श्वनाथ की मूर्ति बिराजी हुई है, उनका अधिष्ठायक मैं हूँ, जिस तरह उनकी पूजा हो सके, वैसे तुम करो।' ऐसा कहकर वह देव अदृश्य हो गया। सवेरे वे लोग वहाँ गये। भूमि के खुदवाने पर प्रकट हुई उस मूर्ति को उन लोगों ने रथ में स्थापित किया, इतने में जीरापल्लीपुरी के लोग वहाँ आये, उन्होंने कहा कि 'आपका यहाँ अस्थाने यह क्यों आग्रह है ? हमारी सीमा (हद) में रहे हुए यह बिंब, आप कैसे ले जा सकते हैं।' इस तरह विवाद होने पर वृद्धों ने कहा कि - 'एक बैल तुम्हारा और एक बैल हमारा इस मूर्ति वाले रथ को जोड़ने में आये, ये दोनों जहाँ ले जाए वहाँ देव अपनी इच्छानुसार जाएं। कर्म-बंध के हेतु विवाद की क्या जरूरत है ? ' यह सलाह-ठराव स्वीकार करके उसी तरह करने पर वह बिंब जीरापल्ली में आया, तब महाजनों ने महान प्रवेशोत्सव किया था। संघ ने सब की अनुमति - पूर्वक पहले वहाँ चैत्य में रहे हुए वीर के बिंब को उत्थापित करके उनको (प्रकट हुए पार्श्वनाथ-बिम्ब) को ही मुख्य तरीके स्थापित किया था। अनेक तरह के अभिग्रह लेकर अनेक संघ वहाँ आते हैं, उनकी अभिलाषाएं उनके अधिष्ठायक द्वारा पूर्ण करने में आती है। इस तरह वह तीर्थ बना। सर्व श्रेष्ठियों में धुरंधर धांधल सेठ देव - द्रव्य की संभाल, देखरेख तथा सुचारु रूप से व्यवस्था करते थे। एक बार वहाँ पर जावालिपुर (जालोर) तरफ से यवनों' का सैन्य आया था, उनको देव ने घोड़े पर सवार होकर भगाया था । सैन्य में से मुनि के वेष को धारण करने वाले उन यवनों के गुरु सात शेखों ने खून की बोतलें भर कर वहाँ आये थे। देव की स्तुति का बहाना लेकर वे देव - मंदिर में रहे थे । उन्होंने रात को खून के छींटे डालकर मूर्ति को खंडित किया था । 'खून के स्पर्श होते ही देवों की प्रभा चली जाती है' ऐसी शास्त्र की वाणी है। वे पापी लोग तुरंत ही भाग गये। क्योंकि उनका चित्त स्वस्थ नहीं रह सकता। उनका किया हुआ अयोग्य कर्म जब सवेरे जानने में आया, तब धांधल वगैरह के हृदय को काफी ठेस पहुँची। वहाँ के राजाओं ने भटों को भेजकर उन सात दुष्ट शेखों को मार डाला और सेना अपने नगर में गई। उपवास करने वाले अपने अधिकारी ( गोष्ठी - देखरेख करने वाले) को देव ने 1. 'जीरापल्ली मंडन - पार्श्वनाथ - विनति' नाम की 11 कड़ी की एक पद्यकृति की एक प्राचीन प्रति है, उसमें वि. सं. 1368 में यह असुर-दल को जीता बतालाया तथा प्रभु-प्रभाव से यह उपद्रव टल गया। ऐसा बताया गया है। 50
SR No.006176
Book TitleJiravala Parshwanath Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year2016
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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