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जगजयवंत जीवावला जीरापल्ली पार्श्वनाथ तीर्थ का प्रबन्ध...
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वि. सं. 1503 के पं. सोमदर्मगणि द्वारा रचित उपदेश सप्तति में जीरापल्लीपार्श्वजिन संबंध में बताया है कि -
_ 'जीरिकापल्ली पुरीरूपी सुंदरी के कंठ-स्थल में जो हार की तुलना को धारण करते हैं, उन पार्श्वजिन को प्रणाम करके उनके तीर्थ-संबंध की कथा जिस तरह सुनी है, उसी तरह प्रकाशित करने में आया है (किया जा रहा है)___ पहले वि. सं. 1109 (90) वर्ष में, बहुत से जैन प्रासादों और शैव प्रासादों से सुशोभित सुंदर ब्राह्मण (बर्माण, सिरोही-राज्य) नाम के महास्थान में थे....
धांधल' नाम का धनाढ्य श्रेष्ठ श्रावक हो गया था। वहाँ गर्व-रहित सरल भद्रिक एक वृद्धा (बुढ़िया) रहती थी। उसकी एक गाय हमेशा सेहिली नदी के पास देवीश्री गिरि की गुफा में दध की धारा बहाती थी. और शाम के समय जब घर आती तब बिल्कुल दूध नहीं देती थी। उस बुढ़िया ने कुछ दिनों के पश्चात् परंपरा से उस स्थान को जाना। उसने धांधल वगैरह पुरुषों के पास जाकर इस वृत्तांत की जानकारी दी। उन श्रेष्ठियों ने विचार किया कि- वह स्थान प्रभावक होना चाहिये। वे सभी श्रेष्ठी इकट्ठे होकर पवित्र होकर रात्रि में पंचनमस्कार (मंत्र) का स्मरण करके पवित्र स्थान में सो गये; तब स्वप्न में नील घोड़े पर सवार होकर कोई संदर पुरुष ने उनके सामने पवित्र वचन कहा कि - ‘गाय जहाँ पर दूध बहाती है, वहाँ 1. 'उपदेशसप्रतिरियं रूचिरा गुण-बिन्दु-बाण-चन्द्र (1503) मिते 1 वर्षे तेन प्रथिता
कृतार्थनीयाऽपि (वि) बुधधुर्यैः।' 2. 'श्रीजीरिकापल्लि-पुरी-नितम्बिना-कण्ठस्थले हास्तुलां दधातियः। प्रणम्य तं पार्श्वजिन प्रकाश्यते
ततीर्थसम्बन्ध कथा यथाश्रुतम्।। पुरा नन्दाभ्रेश 1109 (1190) सख्ये वर्षे ब्रह्माण नामनि' । 3. जिनप्रभसूरि द्वारा रचित फलवृद्धि-पार्श्वनाथ के कल्प में, फलोदी में रहने वाले श्रीमालवंश के
विक्रम की बारहवीं सदी के चौथे चरण में विद्यमान धंधल श्रावक की एक गाय इस तरह दूध की धारा बहाती, और उस श्रावक को आये हुए स्वप्न की हकीकत बताई है। मुनिसुंदरसूरि ने फलवृद्धि पार्श्वनाथ स्तोत्र (जैन स्तोत्र संग्रह य. वि. ग्रं. भा-2, पृष्ठ-84, श्लोक 5) में भी इस
तरह धांधल नाम का सचन किया है। 4. मुनि ज्ञानविजयजी के 'जैन तीर्थोना इतिहास' (सं. 1981 में ए. एम. एण्ड कां. पालीताणा से
प्र.पृ. 65) में जो बताया है उसमें देवी श्रीगिरि की जगह नदी बताई है, जवालिपुर (जालोर) को जावाल बताया हुआ है। उस तरफ से आये हुए यवनों के सैन्य के बदले वहाँ के शीख बताये हैं। लापसी की जगह चंदन बताया है, परंतु उपदेश सप्तति में बताये हुए उपर्युक्त प्रबंध में से ऐसा आशय निकल नहीं सकता। वहाँ यवनों के गुरु को शेख शब्द द्वारा पहचाना गया है, तथा सहि में संस्कृत साहित्य में साखि शब्द द्वारा सूचित किया हुआ माना जाता है।
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