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जगजयवंत जीवावला इस तीर्थ पर बड़े-बड़े आचार्य चातुर्मास के लिये पधारते थे एवं तीर्थ की प्रभावना में वृद्धि करते थे।
अंचलगच्छीय श्री मेरुतुङ्गसूरिजी महाराज ने यहाँ अपने 152 शिष्यों के साथ चातुर्मास किया था।
आगमगच्छीय श्री हेमरत्नसूरिजी ने अपने 75 शिष्यों के साथ इस तीर्थ की पवित्र भूमि पर चातुर्मास किया था। इसी गच्छ के श्री देवरत्नसूरिजी ने अपने 48 शिष्यों सहित इस तीर्थ भूमि पर चातुर्मास किया था।
उपकेशगच्छीय श्री देवगुप्तसूरिजी महाराज ने अपने 113 शिष्यों सहित, कक्कसूरिजी ने अपने 71 शिष्यों सहित एवं वाचनाचार्यश्री कपूरप्रीयगणि ने अपने 28 शिष्यों के साथ अलग-अलग समय यहाँ चातुर्मास किया था।
इसी प्रकार खरतरगच्छ के श्री जिनतिलकसूरिजी महाराज ने अपने 52 शिष्यों के साथ एवं कीर्तिरत्नसूरिजी ने अपने 31 शिष्यों सहित यहाँ अलग-अलग चातुर्मास किया था।
तपागच्छीय श्री जयतिलकसरिजी महाराज ने अपने 68 शिष्यों के साथ यहाँ चातुर्मास किया था और मुनि सुन्दरसूरिजी ने भी अपने 41 शिष्यों के साथ यहाँ चातुर्मास किया था। इन्ही मुनि सुन्दरसूरिजी के उपदेश से सिरोही के राव सहसमल ने शिकार करना बन्द कर दिया था एवं पूरे क्षेत्र में अमारी का प्रर्वतन करवाया। इन्होंने सन्तिकरं स्त्रोत की रचना की थी।
जीरापल्ली गच्छीय उपाध्याय श्री सोमचंद्रजी गणि ने अपने 50 शिष्यों के साथ इस तीर्थ की भूमि पर चातुर्मास किया था। नागेन्द्रगच्छीय श्री रत्नप्रभसूरिजी महाराज ने अपने 65 शिष्यों सहित यहाँ पर चातुर्मास किया था। पीप्पलीगच्छीय वादी श्री देवचंद्रसूरिजी महाराज ने अपने 61 शिष्यों के साथ यहाँ चातुर्मास किया था, ये प्रभावक आचार्य शांतिसूरि के शिष्य थे। इसके अतिरिक्त बहुत से समर्थ जैनाचार्यों ने यहाँ विहार के दौरान विश्राम किया था। बहुत से आचार्यों ने जीरावला के जीर्णोद्धार में बहुत योगदान दिलवाया था, उनके नाम देवकुलिकाओं के शिलालेखों में उत्कीर्ण हैं।
यात्रा एवं संघ के जयनाद आज भी जीरावलाजी तीर्थ की गौरवगाथा का गान कर रहे हैं।
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