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जगजयवंत जीरावला शिवाबाई ने अपने पति के श्रेयार्थ जीरावला तीर्थ में दो गोखले बनवाये थे। यह बाई यात्रार्थ यहाँ आई थी। सं. 1556 में ही प्राग्वाट सिंघवी रत्नपाल की भार्या कर्माबाई ने यहाँ की यात्रा की थी एवं उदयसागरसूरि के उपदेश से यहाँ एक देहरी बनवाई थी।
(यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन भाग-1 पृष्ठ 120-123) वि. सं. 1559 में पाटन के पर्वतशाह और डूंगरशाह नाम के भाइयों ने जीरावला अर्बुदाचल का संघ निकाला था। विक्रम की सोलहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में आचार्य सुमतिसुन्दरसूरि के उपदेश से सद्गृहस्थ वेला ने मांडवगढ़ से एक संघ निकाला था। यह संघ जीरावला आया था। (सोम चारित्रगणि गुरुगुणरत्नाकर काव्य)
सारंगपुर के निवासी जयसिंह शाह, आगरा के सिंघवी रत्नाशाह ने अट्ठासी संघों के साथ आबू और जीरावला की यात्रा की थी। (सोमचारित्रगणि गुरुगुण रत्नाकर काव्य)
सं. 1746 में शीलविजयजी की तीर्थमाला में ओसवाल सूरा व रत्ना दो भाइयों का उल्लेख आता है। उनके वंशज धनजी, पनजी व मनजी ने तीन लाख रुपया खर्च करके एक संघ निकाला था। जो जीरावला आया था।
सं. 1750 में सौभाग्य विजय विरचित तीर्थमाला में जीरावला का उल्लेख है।
सं. 1755 में ज्ञानविमलसूरि द्वारा लिखित तीर्थमाला में सूरिपुर से श्रावक सामाजी द्वारा निकाले गये संघ का वर्णन है।
वि. सं. 1891 में आषाढ़ सुदी 5 के दिन जैसलमेर के जिनमहेन्द्रसूरि के उपदेश से सेठ गुमानचंदजी बाफना के पाँच पुत्रों ने तेईस लाख रुपये खर्च कर श्री सिद्धाचल का संघ निकाला था। इस संघ ने ब्राह्मणवाड़ा, आबू, जीरावला, तारंगा, शंखेश्वर, पंचासर एवं गिरनार की यात्रा की थी। इस सम्बन्ध का वि. सं. 1896 का लेख जैसलमेर के पास अमर सागर मंदिर में विद्यमान है। ___ इसके अतिरिक्त 19वीं सदी के निरन्तर कितने ही संघ निकले जिनकी सूची देना यहाँ सम्भव नहीं है। 20 वीं सदी में तो यातायात का अच्छा प्रबंध होने के कारण प्रतिवर्ष पचासों संघ इस तीर्थ में आते रहते हैं। जिनका उल्लेख करना मात्र पुस्तक का कलेवर बढ़ाना होगा।
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