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= जगजयवंत जीवावला । मेवाड़ के राणा मोकल के मंत्री रामदेव की भार्या मेलादेवी ने चतुर्विध संघ के साथ शत्रुञ्जय, जीरापल्ली और फलौदी तीर्थों की यात्रा की थी।
(संदेह दोहावली वृत्ति सं. 1486)
खंभात के श्रीमाल वंशीय सिंघवी वरसिंह के पुत्र दनराज ने वि.सं. 1486 में चैत्र वदि 10 शनिवार के दिन रामचंद्रसूरि के साथ संघ समेत इस तीर्थ की यात्रा की थी।
'रस-वसु-पूर्व मिताब्दे श्री जीरपल्लिनाथमवुदतीर्थ तथा नमस्कुरुते।' (अर्बुद-प्राचीन जैन लेख संदोह ले. 303)
वि. सं. 1491 में खरतरगच्छीय वाचक श्री भव्यराजगणि के साथ अजवासा सेठिया ने विशाल जन समुदाय के साथ संघ यात्रा का आयोजन किया।
वि. की 15वीं सदी में सिंघवी कोचर ने इस तीर्थ की यात्रा की थी। इनके वंशीयों के वि. सं. 1583 के शिलालेख जैसलमेर के मंदिर में विद्यमान हैं।
वि. सं. 1501 में चित्रवालगच्छीय जैनाचार्य के साथ प्राग्वाट श्रेष्टीवर्य पुनासा ने 3000 आदमियों के संघ को लेकर जीरावला तीर्थ की यात्रा की।
खरतरगच्छ के नायक श्री जिनकुशलसूरि के प्रशिष्य क्षेमकीर्तिवाचनाचार्य ने विक्रम की 14वीं शताब्दी में जीरापल्ली पार्श्वनाथ की उपासना की थी।
संवत् 1525 में अहमदाबाद के संघवी गदराज डूंगर शाह एवं संघ ने जीरापल्ली पार्श्वनाथ की सामूहिक यात्रा की थी। इस यात्रा में सात सौ बैलगाडियाँ थीं और गाते बजाते आबू होकर जीरावला पहुंचे थे। उनका स्वागत सिरोही के महाराव लाखाजी ने किया था। इनमें से गढ़शाह ने 120 मन पीतल की ऋषभदेव भगवान की मूर्ति आबू के भीम विहार मंदिर में प्रतिष्ठित करवाई थी।
(गुरु गुण रत्नाकर काव्य सर्ग-3) . वि. सं. 1536 में तपागच्छीय लक्ष्मीसागरसूरिजी की निश्रा में श्रेष्ठीवर्य
करमासा ने इस पवित्र तीर्थ की यात्रा की थी। इन लक्ष्मीसागरजी ने जीरावला पार्श्वनाथ स्तोत्र की भी रचना की है।
नन्दुरबार निवासी प्राग्वाट भीमाशाह के पुत्र डूंगरशाह ने शत्रुजय, रैवतगिरी, अर्बुदाचल और जीरापल्ली की यात्रा की थी। मीरपुर मंदिर के लेखों के अनुसार सं. 1556 में खंभातवासी बीसा ओसवाल
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