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जगजयवंत जीरावला
सदी के प्रारंभ में यह क्षेत्र राजा धुंधुक के अधीन रहा । चालुक्य राजा भीमदेव ने जब धुंधुक को अपदस्थ किया तो यह प्रदेश उसके अधीन रहा । भीमदेव के सिंहसेनापति विमलशाह का यहाँ पर शासन करने की बात सिद्ध हुई है। मंत्रीश्वर विमलशाह ने विमलवसहि के भव्य मंदिर का निर्माण आबू पर्वत पर करवाया। उन्होंने कई जैन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया और उन्हें संरक्षण प्रदान किया। बहुत समय तक यह प्रदेश गुजरात के चौलुक्यों के अधीन रहा। जीरावला के इस तीसरी बार जीर्णोद्धार वि. सं. 1033 में हुआ । तेतली नगर के सेठ हरदास ने जैनाचार्य सहजानन्दजी के उपदेश से इस पुनीत कार्य को करवाया । तेतली नगर निवासी सेठ हरदास का वंश अपनी दान-प्रियता के लिये प्रसिद्ध था।
उसी वंश परम्परा का इतिहास इस प्रकार मिलता है।
श्रेष्ठीवर्य जांजण
धर्मपत्नी स्योणी
श्रेष्ठीवर्य बाघा
धर्मसी-मन्नसी-घीरासा - घीरासा की धर्मपत्नी अजादे से हरदास उत्पन्न
हुआ ।
सं. 1150 से जीरावला का क्षेत्र सिद्धराज के राज्य का अंग था । वि. सं. 1183 के भीनमाल अभिलेख में चौलुक्य सिद्धराज के शासन का उल्लेख मिलता है। वि. सं. 1161 के लगभग जैनाचार्य समुद्रघोषसूरि और जिनवल्लभसूरि ने यहाँ की यात्रा की। लगभग इसी काल में जैन धर्म के महान आचार्य हेमचंद्राचार्य ने यहाँ की यात्रा की। वे कवि श्रीपाल, जयमंगल, वागभट्ट, वर्धमान और सागरचन्द्र के समकालीन थे । हर्षपुरीगच्छ के जयसिंहसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि ने यहाँ की यात्रा की। अभयदेवसूरि ने रणथम्भोर के जैन मंदिर पर सोने के कुम्भ (कलश) को स्थापित किया था।
खरतरगच्छ के महान् जैनाचार्य दादा जिनदत्तसूरि ने भी यहाँ की यात्रा की । उनकी पाट परम्परा में हुए जिनचंद्रसूरिजी का नाम मंदिर की एक देहरी के लेख में मिलता है।
संवत् 1175 के पश्चात् यहाँ पर भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा । अतः यह नगरी उजड़ गई और बहुत से लोग गुजरात में जाकर बस गये।
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