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तृतीय अध्याय /61 की प्राप्त हुई । और उसके इन चार के चौदह और चौदह के अर्थ से कुल बहत्तर विद्याएँ उसे प्राप्त थी । कवि को बहत्तर कलाएँ अभीष्ट हैं इसलिये यहाँ चतुर्दशत्व की सीमा को पारकर चार (अर्थशास्त्र, गन्धर्वशास्त्र, आयुर्वेद और धनुर्वेद) को लेकर अट्ठारह विद्याएँ होती हैं । उनका चतुर्गुण कर बहत्तर कवि को अभिप्रेत है ।
इसी वस्तु को पूर्ववर्ती नैषधकार ने इस प्रकार कहा है - "अधीतिबोधाचरणप्रचारणैर्दशाश्चतस्त्रः प्रणयन्नुपाधिभिः । चतुर्दशत्त्वं कृतवान् कुतस्स्वयं न वेग्रिम विधासु चतुर्दशस्वयम् ॥"54
अर्थात् विद्याएँ चारो वेद, छः वेदाङ्ग-मीमांसा न्याय धर्मशास्त्र पुराण से चौदह विद्याएँ प्रसिद्ध हैं । इन विद्याओं को नल ने अध्ययन, ज्ञान, आचरण, अध्यापन की दृष्टि से छप्पन प्रकार की विद्याओं को नहीं बनने दिया ? चतुर्दशत्व ही कैसे रह गया ? यह मैं नहीं कह
सकता ।
विवाह संस्कार सम्पन्न होने के अनन्तर जिस समय सुलोचना-जयकुमार प्रस्थान करते हैं । उस समय जो अश्वादि चल रहे उनमें क्या भाव उत्पन्न हुए? उसमें महाकवि ने इस प्रकार कहा है
"कि यती जगतीयती गतिर्नियतिनों वियति स्विदित्यतः ।। विपदिङ्गणरिङ्गणेन ते सुगमा जग्मुरितस्तुरङ्गमाः ॥''55
अर्थात् अश्वों ने विचार किया कि यह पृथ्वी मेरे चलने के लिये कितनी है ? अन्त में हमको आकाश में चलना ही होगा । अतः वे घोड़े उसी समय आकाश में उछलते हुए गमन करने लगे । यह भी नैषधकार की छाया है । यथा
"प्रयातुमस्पाकमियं कियत्पदं धरा तदम्भोधिरपि स्थलायताम् । इतीव वाहैर्निजवेगदर्पितेः पयोधिरोधक्षममुत्थितं रजः ॥'56
जिसका तात्पर्य है कि वे वेगशाली घोडे अपने मन में विचार करते हैं कि हम लोगों को चलने के लिये यह पृथ्वी कितने पाद प्रक्षेप (कितने कदम) होगी ? इससे अच्छा होता कि समुद्र भी स्थल बन जाता । मानो यह विचार कर वेग के अभिमानी घोड़े ने समुद्र को स्थल बनाने के लिये पाद-प्रक्षेप से धूलि को उड़ाया।
इसी प्रकार नैषध से मिलता-जुलता जयोदय महाकाव्य का एक और उदाहरण द्रष्टव्य है"सुरतरङ्गिणि उत्कलिकावतीतरणिरद्य न विद्यत इत्यतः । पृथुलकुम्भयुगं हृदि सन्ददधद् घन सस्य स पारमुपागतः ॥"57
प्रकृत पद्य में यह कहा गया है कि सुरत समुद्र में अनुराग जहाँ उछाल मार रहा है, उत्कण्ठा से भरी हुई मनोवृत्ति रूपी कोई नौका ऐसी नहीं है जिसके द्वारा उसको पार किया जाय । ऐसा सोचकर सुलोचना के वक्षस्थल में विद्यमान विशाल जो कुम्भ युगल थे, उन्हीं के सहारे जयकुमार ने उस सान्द्र अनुराग जलपूर्ण समुद्र को पार किया ।