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तृतीय अध्याय /59 अनुनामगुणैक भूरभूदथ शैवं करिरे त तदङ्ग भूः । न हि शत्रुभिरन्ततामितः स्विदनन्तोत्तरवीर्यसंज्ञितः ॥147 यहाँ जयकुमार के पुत्र अनन्तवीर्य की जन्मोत्पत्ति का वर्णन है ।
पाश्चात्य साहित्य शास्त्रियों ने महाकाव्य को 'एपिक' की संज्ञा प्रदान की है । उनके महाकाव्यों में भी उन तथ्यों का समावेश है जो अपने यहाँ वर्णित है । पाश्चात्य विद्वान् डिक्सन के शब्दों में 'महाकाव्य सभी देशों में एक जैसा है । पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी जगह उसकी आत्मा और प्रकृति में एकता दृष्टिगोचर होती है । महाकाव्य चाहे कहीं भी लिखा गया हो, उसकी रचना सुशृङ्खलित होती है । वह प्रकथन प्रधान होता है । उसका सम्बन्ध महान् चरित्रों से होता है । उसमें महत्कार्य, गौरवमयी शैली, महत् चरित्र आदि का सुनियोजन होता है । उपाख्यानों तथा सविस्तार वर्णनों से उसका कथानक विशाल बनाया जाता है।" इस प्रकार प्रकृत वर्णन में निर्धारित समस्त लक्षणों के आधार पर किसी भी साहित्य रचना को महाकाव्य का नाम दिया जा सकता है ।
इस प्रकार "जयोदय महाकाव्यम्" भारतीय साहित्य एवं पाश्चात्य साहित्य में वर्णित महाकाव्यों के लक्षणों के आधार पर महाकाव्य सिद्ध होता है। प्रकृत में महाकाव्य के समग्र तत्त्वों का विनिवेश हुआ है । छन्दों की विविधता, रस की परिपक्वता, श्लेष, यमक, विरोधाभास आदि अलङ्कारों से समन्वित इस काव्य में शब्दों की विन्यास पद्धति अतिरम्य है । अतः महाकाव्यों के लक्षणों से युक्त महाकवि भूरामल प्रणीत जयोदय महाकाव्य उत्कृष्ट महाकाव्यों की पंक्तियों में रखने योग्य है। महाकाव्यों की परम्परा में जयोदय का स्थानः ___जयोदय की कथावस्तु, भाषा-शैली, अलङ्कार-निवेश, रस परिपाक समस्त का विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रकृत काव्य को कालिदास की सहज सरस रम्य पद्धति में तो नहीं ही रखा जा सकता । अलङ्कत पद्धति के काव्य ग्रन्थ भारवि-माध-श्री हर्ष के मार्ग से किंचित् साम्य होने पर भी जयोदय को उनकी भी श्रेणी में रखना संभव नहीं प्रतीत होता। कवि ने श्रीहर्ष का अनुकरण करने का प्रयास अवश्य किया है पर शब्द-वैचित्र्य तक ही रह गया है । नैषध का अर्थ-सौन्दर्य प्रकृत शब्दाडम्बर पूर्ण काव्य में कहाँ । परवर्ती काव्यों की श्रेणी में भी इसे रखना संभव नहीं । अतः मेरी दृष्टि से जयोदय को शब्द-वैचित्र्य पद्धति में निबद्ध मानकर पं० राज जगन्नाथ द्वारा निरूपित काव्य के चतुर्थ भेद में रखना अधिक समीचीन होगा। जयोदय एवं पूर्ववर्ती महाकाव्यः
राजशेखर ने काव्य-मीमांसा में शब्दार्थोपहरण के प्रकार बताये हैं । संस्कृत कवियों में अपने से पूर्ववर्ती काव्यों का विषय-शब्द-अर्थ का स्वीकार प्रायः देखा जाता है । रघुवंश महाकाव्य के प्रणयन काल में महाकवि कालिदास स्वयं भयभीत है कि समुद्र सदृश विशाल सूर्यवंश का वर्णन करने में मैं कैसे समर्थ हो सकूँगा? पुनः अभिव्यक्त करते हैं कि पूर्व कवि