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तृतीय अध्याय /57 "विश्रान्तिमभ्युपगते तु विभाततूर्ये श्रीमेदिनीरमणधाम समाययुयें। सुता जगुः सुमृदुमञ्जुलमुत्सवाय रात्रिव्यतीतिविनिवेदनकारणाय ॥132
इस महाकाव्य में सन्ध्या वर्णन भी मनोरम है । एक ओर सूर्य अस्त हो रहा था तथा दूसरी ओर चन्द्रबिम्ब उदय हो रहा था इस बीच का काल सन्ध्या होता है । इन दोनों कालों का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है
"रवेरथो बिम्बमितोऽस्तगामि उदेष्यदेतच्छशिनोऽपि नामि । समस्ति पान्थेषु रुषा निषिक्तं रतीश्वरस्याक्षियुंग हि रक्तम् ॥
रात्रि वर्णन प्रसङ्ग में दीपकों पर उत्प्रेक्षा करते हुए कवि ने कहा है कि मानो सूर्य ने ही अपने अङ्गों के टुकड़े करके घर-घर में उनसे विराजमान हो गया है
"उपद्रुतोंऽशुस्तिमिरैः सरद्भिर्भयेऽप्यसम्मूढमतिर्महद्भिः । . विखण्डय देहं प्रतिगेहमेष विराजते सम्प्रति दीपवेषः ॥''34
इसी प्रकार वनों का वर्णन भी मनोरम और पर्याप्त है। वन-विहार के समय सारथी राजकुमार जय से कहता है कि -
"अपि वालवबालका अमी समवेता अवभान्ति भूपते । विपिनस्य परीतदुत्करा इव वृद्धस्य विनिर्गता इतः ॥35
यहाँ एकत्रित अजगर के बच्चे इस बूढ़े वन की निकली हुई आँतो के सदृश प्रतीत होते है। पुनः आगे कहा गया है कि हे जयकुमार ! इधर देखिये साँप औकम्बी उच्छ्वास लेते हुए ऐसा जा रहा है मानो वृक्षों की लम्बाई को ही नाप रहा है -
"स्फटयोत्कटया समुच्छवसन्नयि षट्खण्डिबलाधिराद्रितः । अधुनाऽऽयततां महीरुहामनुगच्छन्निव याति पन्नगः ॥36 एक अन्य श्लोक भी द्रष्टव्य है - "द्विपवृन्दपदादिदगम्बरः सधनीभूय वने चरत्ययम् । निकटे विकटेऽत्र भो विभो ननु भानोरपि निर्भयस्त्वयम् ॥137 वन में विचरते गजसमूहों को अन्धकार सा बताया गया है । प्रकृत महाकाव्य में नदी वर्णन का भी अभाव नहीं है - "रजस्वलामर्ववरा धरित्रोमालिङ्गय दोषादनुषङ्गजातात् । ग्लानिं गताः स्नातुमितः स्मयान्ति प्रोत्थाय ते सम्प्रति सुस्त्रवन्तीम् ॥138 यहाँ भागीरथी को पार करने का वर्णन किया गया है ।
अग्रिम श्लोक में भी प्यासे अश्व का वर्णन है जो गंगा के निर्मल जल में अपने ही प्रतिबिम्ब को देखकर अपनी प्रिया का स्मरण कर अपनी प्यास ही भूल जाता है -
"पिपासुरश्व प्रतिमावतारं निजोयमम्भस्यमलेऽवलोक्य । स सम्प्रति स्म स्मरति प्रियाया द्रुतं विसस्मार पिपासितायाः ॥139