SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 56/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन इसी प्रकार अकम्पन के प्रति प्रशंसा-परक वाक्य द्रष्टव्य है - "सुमुख मर्त्यशिरोमणिनाऽधुना सुगुणवंशवयोगुरुणाऽमुना । बहुकृतं प्रकृतं गुणराशिना पुरुनिभेन धरातलवासिनाम् ॥128 अकम्पन के विषय में उन्होंने कहा है कि गुणशाली वंश, अवस्था में वृद्ध मनुज शिरोमणि महाराज अकम्पन भूतलवासियों के लिये ऋषभ के समान हैं । इस समय स्वयंवर सम्बन्धी जो कार्य उन्होंने किया है वह सुचारुरूप में सम्पन्न किया है । ऐसा ही एक और उदाहरण प्रस्तुत है - "भुवि सुवस्तु समस्तु सुलोचनाजनक एष जयश्च महामनाः । अयि विचक्षण लक्षणतः परं कटुकमर्कमिमं समुदाहर ॥29 यहाँ यह कहा गया है कि सलोचना के पिता उत्तम पुरुष हैं । जयकुमार भी महामना उदार चित्त वाला है । किन्तु अर्ककीर्ति ही केवल तीक्ष्ण (कटु) स्वभाव वाला है । - इस महाकाव्य में छन्दों की रचना समुचित ढंग से की गयी है । अधिकांशतः अनेक सर्गों में छन्दों का बाहुल्य है । यथा-प्रथम सर्ग में उपेन्द्र व्रजा, इन्द्रव्रजा, उपजाति, अनुष्टुप्, आर्या, द्रुतविलम्बित आये हुए हैं । द्वितीय सर्ग में रथोद्धता शार्दुलविक्रीडित, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, भुजङ्गप्रयाति आये हैं । सर्ग की समाप्ति में छन्द बदले भी गये हैं तथा सर्ग की समाप्ति में कवि अपने माता-पिता के परिचय के साथ कृति का भी परिचय देने में तत्पर है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि को छन्द निर्माण करने में लेशमात्र भी आलस्य नहीं प्रतीत होता था । यह महाकाव्य न तो स्वलप है न तो अति विशाल है । अट्ठाईस सर्गों में इस महाकाव्य का निर्माण किया गया है । सर्ग की समाप्ति में भावी सर्ग के कथांश की सूचना मिलती जाती है। इस महाकाव्य में प्रातःकालिक वर्णन का मनोहर दृश्य भी है । जैसे"स्वस्तिक्रियामतति विप्रवदर्कचारे भद्रं सुगहिवदिते कमल प्रकारे। स्वस्तु स्वतोऽद्य भवितुं जगतोऽधिकारे सर्वत्र भाविनि किलामलताप्रसारे ॥" 30 "सुक्तिं प्रकुर्वति शकुन्तगणणऽर्हतीव युक्तिं प्रगच्छति च कोक युगे सतीव । पर मुक्तिं समिच्छति यतीन्द्रवदब्जबन्धे भुक्तिं गते सगुणवद्रजनीप्रबन्धे ॥"31 इसी प्रकार आगे भी कहा गया है कि जब प्रात:कालिक बाजों का विराम हो गया, तब भूपति के स्थान पर पहुँचकर सूतगण रात्रि व्यतीत हो गयी, यह सूचित करने के लिये उत्सव हेतु मधुर मनोरम गान करने लगे। इसके भाव को अधोलिखित पद्य में देखा जा सकता
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy