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________________ तृतीय अध्याय / 55 पदार्थों का निश्चित त्याग करना चाहिए। इस प्रकार वैराग्योत्पादक स्थलों का सन्निवेश शान्ति का पोषक है । पुराण सम्बन्ध होने के कारण यह विख्यात ऐतिहासिक वृत्तान्त लिया गया है । धर्मार्थकाम मोक्ष चारों वर्गों का वर्णन होते हुए भी यहाँ शाश्वत सुख मोक्ष की ओर संकेत किया गया है । मोक्ष के लिये ज्ञान अपेक्षित है । जैसे - 1 "स्तवोऽथ बोधस्य समाश्रमे तु निरीहतायाः स समस्ति हेतुः । मनश्चनः काञ्चन काञ्चनाप्य यो वा यदर्थी सतदभ्युपायः ॥ " 1123 यहाँ कवि ने कहा है कि शान्त स्थान में ज्ञान - परक स्तोत्र निरीहता का निष्कामता ICT सर्वथा कारण है । अग्रिम श्लोक में भी कहा गया है " धर्मस्वरूपमिति सैष निशम्य सम्यग्नर्मप्रसाधनकरं करणं नियम्य । कर्मप्रणाशनकशासनकृधुरीणं शर्मैकसाधनतयार्थितवान् प्रवीणः । 124 अर्थात् धर्म के स्वरूप को सुनकर क्रीडा के साधन उपकरण सामग्री को तिरस्कृत कर कर्म के विनाशक तथापि कल्याण का साधन है उसे ही दक्ष जयकुमार ने चाहा । ये सब शान्त के परिपोषक एवं मोक्ष के सोपान बनते हैं । * महाकाव्यों में नमस्कारात्मक अथवा वस्तुनिर्देशात्मक मंगल होते हैं । यहाँ भी जिन स्वामी को प्रणाम कर कथानक का आरम्भ किया गया है। जैसे - " श्रियाश्रितं सन्मतिमात्मयुक्त्याऽखिलज्ञमीशानमपीतिमुक्त्या । तनोमि नत्वा जिनपं सुभक्त्या जयोदयं स्वाभ्युदयाय शक्त्या ॥ " 1125 यह महाकाव्य नमस्कारात्मक मंगल से पूर्ण है । महाकाव्य में खलों की निन्दा और सज्जनों की प्रशंसा आती है यहाँ भी पुराणपुरुष भरत के मुख से अर्ककीर्ति पर आक्षेप किया गया है तथा काशी नरेश अकम्पन तथा जयकुमार के गुणों की प्रशंसा की गयी है । भरत की यह उक्ति द्रष्टव्य है - "जयकुमारमुपेत्य सुलक्षणा सुदृगतः प्रतिभाति विचक्षणा । मम महीवलयेऽपि वदापरः सपदि तत्सदृशः कतमो नरः ॥ ' 26 इस भू-मण्डल में जयकुमार के समान कौन है ? सुलोचना जयकुमार को वरण की तो निश्चित ही सौभाग्यशालिनी होगी । वह विदुषी प्रतीत होती है । 44 1 निम्नलिखित श्लोक में अर्ककीर्ति की निन्दा करते हुए भरत कह रहे हैं अहमहो हृदयाश्रयवत्प्रजः स्वजनवैरकरः पुनरङ्गजः भवति दीपकतो ऽञ्जनवत् कृतिर्न नियम खलु कार्यपद्धतिः ॥ 27 1 अर्थात् अर्ककीर्ति स्वजन से ही वैर करने वाला हो गया है, ठीक है, प्रदीप से कज्जल उत्पन्न होता है । कारणानुसार कार्य होता है यह नियम सर्वथा घटित नहीं है। ऐसा अर्थान्तरन्यास के द्वारा समर्थन किया गया है।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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