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54 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
जयकुमार मृगाक्षी सुलोचना के मधुर कान्ति हास्य से भरे हुए मुख कमल रूपी बाण के आधीन हो गया। उसी प्रकार सुलोचना भी उसके निर्मल चरण कमलों में अपने नेत्रों को टिकाकर अत्यन्त सुशोभित हुई। परस्पर एक दूसरे के प्रति रतिभाव की पुष्टि होने से यहाँ शृङ्गार का परम पोष हो रहा है ।
जयकुमार और अर्ककीर्ति का प्रचण्ड युद्ध विस्मय पोषक होकर वीर रस को अभिव्यंजित कर रहा है -
"समुत्स्फुरद्विक्र मयोरखण्डवृत्या तथाश्चर्यकरः प्रचण्ड : 1 रणोऽनवीयाननयोर भाद्वै स दिव्यशस्त्रप्रतिशस्त्रभावैः ॥ '
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युद्धभूमि में मरे हुए शत्रुवीरों की स्त्रियों के अश्रुजल प्रवाह करुण रस की व्यजंना कराने में पूर्ण सक्षम है
“मृताङ्गनानेत्रपयः प्रवाहो मदाम्भसां वा करिणां तदाहो । asarisोस्ति ममानुमानमुद्गीयतेऽसौ यमुनाभिधानः ॥ 19 रौद्र रस का एक उदाहरण अवलोकनीय है
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' क्षमायामस्तु विश्रामः श्रमणानां तु भो गुणः 1 सुराजां राजते वंश्य स्वयं माञ्चक मूर्धनि ॥ 120
मंत्रियों द्वारा समझाये जाने के अनन्तर क्रुद्ध अर्ककीर्ति बोला कि हे मंत्रिन् ! क्षमाशील होना संन्यासियों का काम है । क्षत्रियों का पुत्र तो अपने बल द्वारा सिंहासन के शिखर पर आरूढ़ होता है । इस प्रकार अर्क के क्रोध की पुष्टि होने से यहाँ पर रौद्र रस की प्रतीति स्पष्ट है ।
अङ्ग रूप में आये हुए उक्त रसों के अतिरिक्त जयोदय महाकाव्य में शान्त रस की अङ्गी रूप में स्थापना हुई है । शान्त रस का कतिपय उदाहरण प्रस्तुत है । जैसे "युवतयो मृगमञ्जुललोचनाः कृतरवाद्विरदामदरोचनाः । लहरिबत्तरलास्तुरगाश्चमू समुदये किमु दृक् झपनेऽप्यम् ॥ 21
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अर्थात् सारे वैभव स्वप्न सदृश हैं। दृश्य पदार्थ नश्वर हैं । नेत्र के बन्द होने पर मृगाक्षी युवतियाँ मत्त हाथी आदि साधक नहीं बनते हैं । यह वर्णन शान्त का पोषक है । इसी प्रकार अधोलिखित श्लोक में भी शान्ति की ओर संकेत मिलता है ।
" शरीरमात्रं मलमूत्रकुण्डं समीक्षमाणोऽपि मलादिझुण्डम् । त्यजेदजेतव्यतया विरोध्यमेकान्तमेकान्ततया विशोध्य ॥ 122
यह शरीर मल मूत्र का पात्र मलादि का ही समूह है, यह विचार करता हुआ भी मन शोधन कर अर्थात् विषयों से मन को पृथक् कर जीतने में असह्य होने के कारण विरोधी