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________________ तृतीय अध्याय /53 हैं "त्वदपरो जलबिन्दुरहं जनो जलनिधे मिलनाय पुनर्मनः । यदगमं भवतो भुवि भिन्नतां तदुपयामि सदैव हि खिन्नताम् ॥14 समुद्र और बिन्दु की अन्योक्ति द्वारा अर्ककीर्ति से जयकुमार कहता है कि हे जलनिधे! आप समुद्र के समान और मैं उसकी मात्र एक बूंद हूँ। जो कि तेरा ही अङ्गभूत जन है, किसी कारण भू-मण्डल पर तुमसे जो अलग हो गया, निश्चय ही इसका मुझे अत्यन्त दुः ख है। अतः पुनः आप से मिलना चाह रहा हूँ। यहाँ पराजित शत्रु से विजेता का विनम्रता पूर्वक निवेदन धोरोदात्तता का द्योतक है। पुनः अग्रिम श्लोक भी इसी की पुष्टि करता है - "हृदनुतप्तमहो तव चेद्यदि किमु न तापमहो मयि सम्पदिन् । तदनुतापि न मेऽप्युपकल्पनं भवितुमेति नभः सुमकल्पनम् ॥15 अर्थात् हे वैभवशालिन् ! यदि आपका हृदय संतप्त है तो मेरे मन में भी कम संताप नहीं है । मेरा हृदय ताप से रहित है, यह कहना आकाश कुसुम के समान है, अर्थात् हम दोनों ही परस्पर वियोग से दु:खी हैं । पुनः आगे कहते हैं कि हे समुद्र ! संताप का वेग आप का क्या बिगाड़ेगा? क्योंकि समुद्र में उत्पन्न वडवानल सरीखा अग्नि भी अपना कुछ प्रभाव नहीं दिखा पाता । और भी मुझ पर तो सदैव हवा आदि की बाधा सताती रहती है । बिन्दु होने के कारण मैं किसी के प्यास को भी नहीं बुझा सकता लेकिन आप तो समुद्र हैं । अतः आपके ऊपर मेरा क्या प्रभाव पड़ सकता है। "विनतिरस्ति समागमनाय ये समुपधामुपयामि तव क्रमे । न मनसीति भजेः किमु बिन्दुनाप्यवयवावयवित्वमिहाधुना ॥16 तात्पर्य है कि, समागम करने के लिये आपसे बार-बार विनती है। आपके चरणों में मेरा प्रणाम है । इस प्रकार का कथन सर्वश्रेष्ठ नायक से ही सम्भव है। इस प्रकार जयोदय में सत्कुलोत्पन्न जयधीरोदात्त नायक है जो महाकाव्य की दूसरी विशेषता को पुष्ट करता इस महाकाव्य में शृङ्गार, वीर, करुण, रौद्र आदि रसों ने यद्यपि स्थान प्राप्त किया है, तथापि शान्त रस ही अङ्गी है। शृङ्गार रस के अनन्त उदाहरण महाकाव्य में प्राप्त हैं, जिसमें एक उदाहरण द्रष्टव्य है... "मुखारविन्दे शुचिहासके शरेऽलिवत्स मुग्धो मधुरे मृगीदृशः । १. प्रसन्नयोः पादसरोजयोर्दृशं विशेष्य पद्मापि जयस्य सम्बभौ ॥"17
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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