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तृतीय अध्याय / 51 इस प्रकार वेद से प्रारम्भ कर अद्यावधि संस्कृत महाकाव्यों की परम्परा का एक लम्बा इतिहास है। वेद उनके मूल हैं तो रामायण, महाभारत पुराण कथा के स्रोत । सहज से विचित्रमध्यम मार्ग की और निरन्तर प्रवहमान इस काव्य पथ में जैन-बौद्ध कवियों ने भी अपनी प्रतिभा-कौशल का पर्याप्त विजृम्भण किया है। इस मार्ग में हमारे प्रकृत महाकाव्य की क्या भूमिका है ? इस पर हम दृष्टिपात करेंगे। प्रथमतः तो देखना है कि प्रकृत रचना क्या महाकाव्य की कसौटी पर सटीक है ? पुनश्च महाकाव्यों में उसका स्थान क्या है ? हम इसी की ओर चल रहे हैं ।
जयोदय महाकाव्य का महाकाव्यत्व
जयोदय के महाकाव्यत्व को परखने के पूर्व महाकाव्य का ज्ञान सर्वथा नान्तरीयक है, क्योंकि बिना इस ज्ञान के किसी काव्य को कसौटी पर कसा नहीं जा सकता । अतः महाकाव्य किसे कहते हैं ? इस पर कुछ दृष्टिपात करना अप्रासङ्गिक नहीं होगा ।
संस्कृत साहित्य में अनेक लक्षण ग्रन्थ निर्माता हुए हैं, जिनमें काव्य के प्रायः प्रत्येक अङ्गों की पूर्ति साहित्य दर्पण से ही हो जाती है। इसलिये काव्य के विषय में आचार्य विश्वनाथ के मत को समक्ष रखकर उसी के आलोक में जयोदय का महाकाव्यत्व परीक्षित करेंगे ।
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काव्य दृश्य और श्रव्य के भेद से दो प्रकार का होता है । इनमें दृश्य काव्य अभिनेत्र होता है, उसी को रूपक भी कह सकते हैं । रूपक के दस भेद बतलाये गये हैं । इनके अतिरिक्त अट्ठारह प्रकार के उप रूपक भी कहे गये हैं। इस प्रकार रूपकों का बड़ा विशाल परिवार है, जो प्रकृत में उपयोगी नहीं है । इसलिये हम श्रव्य काव्य की ओर दृष्टिपात करते
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हैं ।
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छन्दोबद्ध पद को पद्य कहते हैं । जिस वस्तु का एक पद्य में वर्णन हो उसे मुक्तक काव्य कहते हैं । दो पद्यों में वर्ण्य विषय को जुग्मक काव्य कहते हैं। तीन पद्य से, जिसका वर्णन हो उसे सान्दानतिक कहते हैं । चार पद्यों में निबद्ध रचना को कलापक कहते है । पाँच पद्य वाली रचना कुलक होती है । इसी प्रकार छः, सात, आठ, नौ, दस से सम्बन्धित को भी कुलक कहा जाता है ।
आचार्य विश्वनाथ द्वारा निरूपित काव्य लक्षण इस प्रकार है -
महाकाव्य सर्ग बद्ध होना चाहिए। काव्य का नायक कोई देव या सत्कुलोत्पन्न क्षत्रिय होता है। वह धीरोदात्त गुणों वाला एक व्यक्ति हो सकता है अथवा एक ही वंश में उत्पन्न अनेक भी कुलीन राजा हो सकते हैं ।
महाकाव्य में शृङ्गार, वीर या शान्त में से कोई एक रस प्रधान होता है तथा अन्य रस उसी के पोषक होकर अङ्ग रूप में आते हैं। जिस प्रकार नाटकों में पंच सन्धियाँ (मुख, प्रतिमुख. गर्भ, विमर्श और निर्वहण) होती हैं, उसी प्रकार काव्य में भी उनका होना आवश्यक है 1