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द्वितीय अध्याय / 43 सम्भवतः ये जिनसेन के सधर्मा या गुरुभाई थे जैसा कि आदि- पुराण से स्पष्ट होता है - . "भटाकलङ्क श्रीपाल पात्र केसरिणां गुणाः । विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ॥4
आदिपुराण की पीठिका में श्री जिनसेन स्वामी ने 'जयसेन' का गुरु रूप में स्मरण किया है -
"सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद गुरोश्चिरम् ।। मन्मनः सरसि स्थेयान् मृदुपादकुशेशयम् ॥5
जिनसेन स्वामी के महापुराण का रचना काल नवीं शताब्दी है । जिनसेन स्वामी वीरसेन स्वामी के शिष्य थे । आपके विषय में गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण की प्रशस्ति में ठीक ही लिखा है कि जिस प्रकार हिमालय से गंगा के प्रवाह का सर्वज्ञ के मुख से सर्वशास्त्ररूप दिव्य ध्वनि का, और उदयाचल के तट से देदीप्यमान् सूर्य का उदय होता है, उसी प्रकार वीरसेन स्वामी से जिनसेन का उदय हुआ ।
जयधवला की प्रशस्ति में आचार्य जिनसेन ने अपना परिचय बड़ी ही आलंकारिक भाषा में दिया है । यथा - ___ 'उन वीरसेन स्वामी का शिष्य जिनसेन हुआ, जो श्रीमान् था और वह उज्ज्वल बुद्धि का धारक भी था । उसके कान यद्यपि अविद्ध थे तो भी ज्ञानरूपी शलाका से बेधे गये थे ।' प्रभावपूर्ण होने के कारण मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने उत्सुक होकर वरण करने की इच्छा से मानो स्वयं ही उसके लिये श्रुतमाला की योजना की थी । जिसने वाल्यकाल से ही अखण्डित ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था फिर भी आश्चर्य है कि उसने स्वयंवर की विधि से सरस्वती का उद्वहन किया था । जो न बहुत सुन्दर था और न अत्यन्त चतुर ही फिर भी सरस्वती ने अनन्यशरणा होकर उसकी सेवा की थी । 'बुद्धि, शान्ति और विनय यही जिसके स्वाभाविक गुण थे, उन्हीं गुणों से वह गुरुओं की आराधना किया करते थे । ठीक ही है, गुणों के द्वारा किसकी आराधना नहीं होती ?' शरीरसे वह यद्यपि कृश थे परन्तु तपरूपी गुणों से कृश नहीं थे । वास्तव में शरीर की कृशता, कृशता नहीं है, जो गुणों से कृश है, वही कृश है"। 'जिन्होंने न तो कापलिका को ग्रहण किया और न अधिक चिन्तन ही किया फिर भी अध्यात्म विद्या के परंपारंगत थे । 'जिनका काल निरन्तर ज्ञान की आराधना में ही व्यतीत हुआ, इसीलिये तत्त्वदर्शी उन्हें ज्ञानमय पिण्ड कहा करते हैं ।
कवि ने जिनसेन को प्रणाम किया है और उसकी काव्य कथा के निर्माण में ग्रन्थ के माध्यम से भूमिका प्रस्तुत करते हैं । अत: जिनसेन प्रणीत ग्रन्थों का भी उल्लेख करना उचित है । उनके द्वारा प्रणीत निम्नाङ्कित ग्रन्थों का पता चलता है - 1. पाश्र्वाभ्युदय : जिनसेन स्वामी का पाश्र्वाभ्युदय काव्य तीन सौ चौंसठ मन्दाक्रान्ता वृत्तों
में पूर्ण हुआ है । भाषा, शैली बहुत ही मनोहर है ।