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________________ ...... - द्वितीय अध्याय /41 को ही अपना धन बनाया । ततः तपस्या द्वारा अपरिवर्तनशील शुद्ध कांचन स्वरूप को धारण किया । 'सोऽहम्' का विचार करते हुए अहंकार से दूर हुए जयकुमार ने समारोह क्रम से वस्तु संविद को ग्रहण कर स्वराज्य सिद्धि की प्राप्ति की । इन सब वर्णनों के पश्चात् वृषभत्व का विवेचन किया गया है । ___तपश्चर्या परिणाम चक्रबन्ध का विवेचन करने के अनन्तर प्रकृत महाकाव्य के फल पर प्रकाश डाला गया है । पुनः महाकवि अपनी स्थिति का संकेत करता है कि इस प्रबन्धार्थ को बिना श्रम के पूरा करने में गुरु कृपा सेतु ही कारण है । अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए वह कह रहा है कि जो प्रमुख जिन सेनादि कवि हुए हैं, वे वन्दनीय हैं । हम लोग कवि हैं परन्तु नाम मात्र के हैं । गुणभद्र कथाओं को कहते हैं उसमें भला प्रवृत्ति कहाँ से हो सकती है । इस प्रकार इस काव्य की पूर्ति की गयी है । यहाँ सामन्तभद्र, विद्यानन्द, शिवायन आदि नामक धेनु का भी संकेत कवि ने किया है । अन्त में कवि का कथन है कि यह काव्य मधुर महापुराण का आलोडन कर क्षीर सागर से मथ कर निकाले हुए नवनीत की भाँति है । महाकवि ने इस काव्य की प्रतिष्ठा की अभिलाष रखते हुए गुणी विरक्त ज्ञानानन्द को प्रणाम किया है । और अन्त में यह भी बताया गया है कि श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को इस काव्य की पूर्ति की गयी। कथा-विभाग - शास्त्रीय दृष्टि से कथा-विभाग पर दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट है कि जय-सुलोचना के इतिवृत्तात्मक इस महाकाव्य की कथा इतिहास सिद्ध होने के कारण प्रख्यात कोटि की है । पूर्व की पंक्तियों में मैंने इसका उल्लेख भी किया है । स्पष्ट है कि जय-सुलोचना की कथा आधिकारिक कोटि में भी आती है । जयकुमार के सन्दर्भ में आने वाली अर्ककीर्ति आदि की कथाओं को हम सहायक कथा मानकर प्रकरी की कोटि में रख सकते हैं। ___ सन्ध्यादि विभाग के सन्दर्भ में प्रारम्भ के माङ्गलिक श्लोक के अनन्तर जयकुमार महाराज की कथा को पवित्र बताकर कवि ने बीज का वपन कर दिया है, प्रारम्भ भी कथा का यहीं से होता है । अतः बीज और आरम्भ के योग से हम यहाँ से मुख सन्धि मानेंगे जो मुनिराज के उपदेश पर्यन्त तक चलती है । क्योंकि जयकुमार के माध्यम कवि जैन धर्म का प्रचार और शान्त्यादि वृत्ति को ही कथा का चरम लक्ष्य मानता है । अतः सर्पिणी वृत्त से लेकर काशिराज पुत्री सुलोचना के स्वयंवर की तैयारी पर्यन्त तक लक्ष्य की ओर कथा के अग्रसर होने के कारण विन्दु-यत्र के योग से प्रतिमुख सन्धि बनती है । सुलोचना स्वयंवर में अनेक राजन्यों के समाहित होने और स्वयंवर के पश्चात् अनाहत भी अर्ककीर्ति द्वारा युद्ध की घोषणा और युद्धादि का वर्णन गर्भसन्धि का निर्माण करता है । अनन्तर गृहस्थ धर्म में रहते हुए जयकुमार और सुलोचना को विद्याधर दम्पति तथा कपोत दम्पति के दर्शन से पूर्व जन्मों के स्मरणादि 'वृत्ति पूर्वक जैन धर्म की दीक्षा पर्यन्त विमर्श सन्धि बनती है । और अन्ततः अनेक
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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