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________________ द्वितीय अध्याय / 37 इस प्रकार अर्हन् देव के स्तुति में ही इस सर्ग की समाप्ति कर दी गयी है, जो शान्तिसिन्धु स्तवचक्र बन्ध नाम से व्यवहृत है । विंशतितमः सर्ग : बीसवें सर्ग में जयकुमार द्वारा चक्रवर्ती महाराज भरत के समीप जाने का वर्णन किया गया है । वहाँ से लौटते समय जब उनका गज गंगा में प्रवेश करता है तभी एक देव (जलचर रूपधारी मत्स्यविशेष) ने गज पर आघात कर दिया । गजाघात से जयकुमार को अत्यन्त व्यथा हुई और वह जल में डुबने सा लगा। यह देखकर गंगा के दूसरे तट पर अवस्थित सुलोचना उसके उद्धारार्थ नमोकार मन्त्र का जप करती हुई गंगा में प्रविष्ट हुई । उस सती के पुण्य प्रभाव से जल देवता का आसन काँपने लगा और वह स्वयं वहाँ आकर उपस्थित भी हुआ । सुलोचना एवं जयकुमार की पूजाकर अपना परिचय देकर वह लौट गया। इस कथा को विस्तार में प्रस्तुत करते हुए भरतवन्दनचक्रबन्ध नाम से इस सर्ग की समाप्ति की गयी है । एकविंशतितमः सर्गः इस सर्ग में नगर की ओर जयकुमार के प्रस्थान का वर्णन किया गया है । प्रस्थान काल में अवचक्र से सुसज्जित हस्तिसमूह, जिन आदि से सुसज्जित घोड़े, अश्वसन्नद्ध रथ गमन हेतु सजाये गये । इस प्रकार सेना से युक्त होकर उसने प्रसन्नता पूर्वक प्रस्थान किया । इस प्रस्थान बेला में पदाति, अश्व आदि सेना का मनोरम वर्णन करते हुए नूतनालय का चित्ताकर्षक चित्रण किया गया है। नर नायक जयकुमार जब धनधान्य परिपूर्ण गुणशालिनी पृथ्वी को देखते हुए चल रहे थे तो मार्ग में शबर आदि के नायक लोग प्रसन्नतावश गजमुक्ता फल की माला एवं पुष्प आदि उपहार लेकर विनत होकर महाराज को देखने के लिये आये । महिषी धवलिमा से अलंकृत एवं एकत्र अवस्थित गोपों के घरों को देखकर सुलोचना हर्ष विभोर हो गयी । गोपगण अपनी झोपड़ियों पर हाथ को रखे हुए आश्चर्य पूर्ण चंचल नेत्रों से राजा को देख रहे थे । यहाँ गो वधूटियों द्वारा दधिमन्थन वैभव के साथ उनके मुखादि अङ्गों की शोभा का मनोरम वर्णन किया गया है। दर्शनार्थ आये हुए आभीरों को विद्वान्, न्यायप्रिय जय ने कुशल आदि पूछकर प्रेमपूर्वक विदा किया । I ततः सुलोचना के साथ राजा जयकुमार ने नगर में प्रवेश किया जहाँ उनके भव्य स्वागत का दिव्य वर्णन किया गया है। वहाँ पहुँचकर राजा जयकुमार ने हेमाङ्गदादि के समक्ष सुलोचना के विशाल भाल प्रदेश पर पट्ट को बाँधा । पुनः राजधानी में समागत हेमाङ्गद आदि वीरों का जयकुमार के द्वारा सत्कार दिखाकर विदा करते हुए नगरागमन जय चक्रबन्ध के साथ इस सर्ग की समाप्ति कर दी गयी है ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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