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34 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
सुन्दरियों के जघन प्रदेश के आघातवश तट प्रदेश पर पहुँचा हुआ जल मालिन्य को प्राप्त हुआ ठीक ही है जड (जल) व्यक्तियों के लिये तिरस्कार अत्यन्त कष्टदायक होता है । इस प्रकार जल-विहार का वर्णन दिखाया गया है ।
___ अन्त में विविध क्रीडाओं का वर्णन कर सरिदवलम्ब नामक चक्रवन्ध से इस सर्ग की समाप्ति की गयी है।
पंचदशः सर्ग : - इस सर्ग में सन्ध्या एवं रात्रि का वर्णन किया गया है । सन्ध्याकाल ऐसा लग रहा था मानो प्रियतम के संगम हेतु उत्सुकता से भरी हुई कामनियों के रक्तानुराग पूर्ण कटाक्ष वाणों एवं कमलवसतियों का निकटतम सम्बन्ध होने से सूर्य लालिमा को प्राप्त होने लगा। जिस प्रकार उदय काल में सूर्य रक्त रहता है, उसी प्रकार अस्तकाल में भी रक्त ही रहता है । महान्- पुरुष भी विपत्ति और सम्पत्ति दोनों काल में एक समान ही रहते हैं । ___इधर सूर्य बिम्ब अस्त हो रहा था, उधर चन्द्रबिम्ब उदय हो रहा था । मानो क्रोध से भरे हुए होने से कामदेव के ये दोनों लाल नेत्र हैं। घर-घर में दीपक जल उठे मानो फैले अन्धकार में सूर्य ने अपने टुकड़े-टुकड़े कर उनसे घर में विराजमान हो गया हो ।
अन्धकार से ऐसा प्रतीत होता है मानो रात्रि आकाश को ही पान कर लिया है । रात्रि का प्रभाव फैलने से आकाश भाग दिखायी नहीं दे रहा है । सन्ध्याकाल में की गयी सक्रियाएँ फलवती होती हैं । रात्रि ऐसी लग रही थी मानो प्रखर किरण सूर्य रूप चाण्डाल के सम्पर्क से आकाश रूपी भवन को दूषित समझकर रात्रि रूपी वधू अन्धकार रूप गोबर से उसे लीप रही हो । इसी प्रकार चन्द्र-बिम्ब, चन्द्रोदय, चन्द्रिका आदि का मनोरम वर्णन हुआ है ।
___ इसके पश्चात् मानिनी नायिका तथा नायकों के पारस्परिक सम्वाद के द्वारा हृद्य वर्णन है । जैसे - कोई सखी नायिका से कह रही है कि हे सखि! तुम भी सुन्दर अङ्गवाली हो चुकी हो वह युवक भी चंचल है, ये गाढ़ी रात्रि है, एकान्त में हमारे कहे हुए वृत्तान्त कहने योग्य हैं, समस्या अत्यन्त पीड़ा-दायिनी है । भगवान् शंकर इष्ट को प्रदान करें । इस प्रकार कामिनी की अनुकूल चेष्टाओं को दया की भाँति पूर्ण करने वाली नायक के प्रति भेजी गयी दूती सन्देश द्वारा सन्देश दानादि का वर्णन किया गया है । इस वर्णन में कवि की कल्पनाओं का उत्थान कर सर्ग की निशासमागम चक्रबन्ध के द्वारा समाप्ति कर दी गयी है ।
षोडशः सर्ग : सोलहवें सर्ग में मद्यपान गोष्ठी का वर्णन किया गया है। अर्द्धरात्रि रूपी तीर्थ में कामदेव स्नान करके मानो जय के लिये निकल पड़ा । तारुण्य वश एक दूसरे के परस्पर उपकार युवजनों में वार्तालाप चलने लगे । कोई कहता है -
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