________________
द्वितीय अध्याय / 33 के लिये तैयार हो गये । दूसरों से अस्पृश्य महासती सुलोचना को जयकुमार ने स्वयं ऊँचे रथ पर बैठाया । विदा के समय में सुलोचना की माता उससे बोली हे पुत्रि ! तुमको विदा करने से मेरा मन बहुत खिन्न हो रहा है किन्तु ललना जाति के लिये यह व्यवहार नहीं है, इसलिये तुम जाओ।
___ जयकुमार के प्रस्थान काल में अग्रगामी व्यवस्थापक जन समुदाय द्वारा मार्ग की भीड़ को दूर करने का वर्णन किया गया है, जिससे ससैन्य जयकुमार के चलने में सुविधा हो सके । जन समुदाय मधुरालय के साथ जयकुमार का अनुगमन करता हुआ प्रणाम कर अपने देश की सीमा से लौट आया। ततः सुलोचना एवं राजा अकम्पन के पुत्रों के साथ जयकुमार आगे बढ़ा। जयकुमार सबसे सम्मानित होकर गज पंक्ति अश्वराजि एवं जन समूह तथा सुलोचना के साथ अनेकशः हास्य विनोद करते हुए नगर भूमि को पारकर फलों से नम्र वन भूमि में पहुँचे ततः सारथी द्वारा उस भूमि का सुन्दर वर्णन किया गया है ।
इस प्रकार चक्रवर्ती भरत के सेनापति जयकुमार के सामने जाह्नवी दिखायी पडी, जिसका हृदयग्राही वर्णन हुआ है । पुनः जयकुमार शिविर में पहुँचकर ससैन्य विश्राम किये ।
थोड़ी ही देर में दुकानदार शिविर के चतुर्दिक् दुकानें फैला दिये, जिनमें जयकुमार के साथ-साथ ग्राहक लोग भी पर्याप्त संख्या में अपनी आवश्यकताओं को खरीदने लगे।
ततः गंगा स्नान एवं विश्राम तथा जल पान प्रभृति क्रियाओं का मनोरम वर्णन किया गया है।
इस प्रकार त्रयोदश सर्ग में जयकुमार के गंगा तट पर विश्राम का वर्णन कर सर्ग की समाप्ति की गयी है, जो गंगागतजय इस चक्रबन्ध से सूचित किया गया है ।
चतुर्दशः सर्ग : चतुर्दश सर्ग में वन विहार एवं जल क्रीडा का वर्णन किया गया है । गंगा के तट प्रदेश जो शान्तिमय थे, उसमें जनता की महती रुचि उत्पन्न हुई । मानो ब्रह्मा के पुत्र नारद के लिये सुललित तारों से युक्त उनके उत्सव के लिये वह महती रुचि थी अर्थात् महती नाम की वीणा ही थी। शीतल मन्द सुगन्ध वायु से संपृक्त वह रम्य प्रदेश दूर से ही सूरत के योग्य विलक्षण प्रतीत हुआ ।
इसी प्रकार लता द्वारा वृक्ष के आलिङ्गन को देखकर युवतियों में प्रशस्त नायिकाओं ने नायक का आलिङ्गन किया।
जल क्रीडा के निमित्त जल में सुन्दरियों का प्रवेश हुआ । प्रियतम के हाथ का सम्पर्क सपत्नी के लिये दुःखदायक हो गया । चपलतावश जल में किसी विलासवती के जघन प्रदेश में फैले हुए वस्त्र को खींच दिया, जिससे नग्न क्रान्ति के ब्याज से ऐसा प्रतीत होता था कि मानो यह कामदेव के हेतु निर्मित की गयी उसकी प्रशस्ति है ।